शनिवार, 28 मई 2011

अविश्वास

अविश्वास

थका सा 
अविश्वास
तुम्हारे चेहर पे ठहर जाता है
कुछ क्षण को.

तुम सोचती हो
मेरे बारे में.

जबकि मै जानता हूँ
खुद को,
और तुम्हें भी.

तुम्हें चिंतित देख
आश्वस्त हूँ 
कि
ये स्वाभाविक भी है.

फिर भी,
तुम्हारे अविश्वास को
जीतने के लिए
आवश्यक है
थोड़ी दूरी.

हमारे बीच.

- वाणभट्ट






गुरुवार, 26 मई 2011

चाहें...तो इसे ग़ज़ल कह लें...

चाहें...तो इसे ग़ज़ल कह लें...

बा-अदब, बा-मुलाहिजा, होशियार 
बन्दर के हाथों लग गयी तलवार

अपनी खातिर जिनको राजा चुना
शेर की खाल में निकला सियार

गुनाह रोकने का जिसपे था जिम्मा 
क़त्ल करके बन गया गुनाहगार

जनतंत्र पे गनतंत्र हावी हुआ
समय रहते, चुन तू भी हथियार

काली कमाई से भरे हैं पेट जो
कैंसर को कह रहे हल्का बुखार

चैनोअमन देने का करे जो वास्ता
ऐसे लोगों का कबतक करें हम ऐतबार

जनता करे फांकाकशी, उडाये मौज वो
उठ खड़े हो, गाँधी का मत कर इंतज़ार

- वाणभट्ट 

रविवार, 22 मई 2011

योद्धा और कायर

योद्धा और कायर 

देख तू
उनकी छाती
लहू से धरा 
है जिसने सींची 

हो किसान या
कोई मजदूर हो
देखने में लगता भला 
कितना ही मजबूर हो
पर नहीं वो मांगता 
भिक्षा किसी से
ऐसे अभिमानी को
शत-शत नमन हो

देख तू
उनकी आँखें
लाल हैं
पर 
बोलतीं हैं

उनकी बलिष्ठ भुजाएं 
छीन भी सकती हैं हक अपना 
पर नहीं उनकी 
आँखों में सपना
हक दूसरों का मार के
समृद्ध होना
उसने सीखा 
अपनी रोटी के लिए 
संघर्ष करना
पर नहीं सोचा 
स्वप्न में भी संहार करना
ऐसे वीरों को 
शत-शत नमन हो

देख उसको भी
कि जो भ्रष्ट है
दूसरों की समृद्धि से
जो त्रस्त है
इसलिए  वो 
घूस से ही मस्त है
जो गरीबों के लिए था
उस राशी को वो मार के 
दौलत के
नशे से पस्त है
उसकी छाती में 
वो बात नहीं 
उसकी भुजाओं में भी 
वो घात नहीं

ये अलग है बात 
कि   
कानून ने उसको न पकड़ा
पर मानसिक बीमारियों ने 
उसको जकड़ा
उसकी कुंठित
सोच है
उसके मन में भी 
भयानक लोच है
सारी दुनिया 
चाहता है लूट लेना
भगवान् से भी चाहता है 
घूस दे कर छूट लेना
उसमें नहीं है स्वाभिमान 
हाथ फैलाना भी उसकी है शान 
शायद उसे मालूम नहीं
सब ठाठ यहीं है रह जाता 
जब है 
वक्त आता 

देख उसकी कमर से ऊपर निकलती 
तोंद को
बेल्ट कस के चाहता है
इस समृद्धि को दे रोक वो
पर नहीं वो जानता
ऊपर की कमाई 
जो ठूंस-ठूंस के खाई
जीते जी बदहजमी कर जायगी 
या
मरने के बाद किसी और के काम आएगी 
या कि 
सारी धमनियां जाम कर देगी
या कहीं से 
फाड़ के निकल लेगी

ऐसे गद्दारों को
पूरे देश की 
धिक्कार हो

- वाणभट्ट 




















शनिवार, 21 मई 2011

जिंदगी


जिंदगी 

कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है
कि
भाग्य और कर्म
वेक्टर क्वांटिटी हैं.
जिसका जोर चले,
वो उधर खींच ले जाता है
और
आदमी रिजल्टएंट पथ पर बढ़ता है.

उसकी जीत पक्की है,
जिसके भाग्य और कर्म के बीच
का
कोण शून्य हो.

कर्म कई गुना ज्यादा करना होगा,
जीत के लिए,
अगर दिशा उलटी हो तो.

कभी कभी मेरे दिल को लगता है कि ये स्केलर क्वांटिटी हैं.
जिनका आपस में कोई सरोकार नहीं.
भाग्य इज डायरेक्टली प्रोपोर्शनल टु कर्म.
एक हाथ दे और एक हाथ ले,
किसी तरह का कोई कन्फुज़न नहीं.

पर मेरे दिल को कभी कभी ये भी लगता है,
कि जिंदगी कर्म और भाग्य से कुछ अलग ही है.
पैदा होने से मरने तक,
जो कुछ भी है,
जिंदगी है.
और इसे जिया जाना चाहिए.

जितनी भी है,
जैसी भी है.

- वाणभट्ट

रविवार, 15 मई 2011

जीवन

जीवन

गर्मी की रात
छत पर लेटे-लेटे
यूं ही 
मै हर तारे पर 
लम्हों के नाम लिख देता हूँ
और फिर गिनता हूँ
उन्हें घास के तिनकों की तरह
कुछ भूलता सा, कुछ याद करता

इसी तरह सरकती जाती है
जिंदगी धीरे-धीरे
लम्हा-लम्हा

छिपकली की दुम की तरह
जो बढ़ती है धीरे-धीरे
और
कब पूरी हो जाती है
पता भी नहीं चलता

पर हर पल का अपना निशान
अपने में पूरा
और पूरे में अधूरा
फिर भी
वो इक कड़ी है
जो जोड़ती है
बीते और आने वाले पल को

इस प्रकार बनती है
श्रृंखला
जो टूटती है
पूरी हो कर.

- वाणभट्ट 


हम-तुम

हम-तुम

इन तारों भरी रात में 
ले हाथ तेरा हाथ में
कुछ वादे करें

महकी आवाज़ ले
सुरीला साज़ ले
इक नग्मा गुनें 

हाड तक घुसती गलन
हवा में तीखी चुभन
चल शबनम बिनें

कोई आता है इधर
पतझड़ के सूखे पत्तों पर
उसकी आहट सुनें 

- वाणभट्ट 


मंगलवार, 10 मई 2011

हाई-वे

हाई-वे 

सड़क जाती नहीं कहीं

इस सिरे से उस सिरे तक पसरी पड़ी ये 

न जाने कितने गुजर गए

पता नहीं किस जिद पर अड़ी ये 

रौंद गए जो इसकी छाती

कुचल गए जो इसके ख्वाब

उनके लिए भी ये बुदबुदाती 

अलविदा दोस्त, खुदा हाफिज़ जनाब

इसका बस चलता तो ये रास्ता बदल देती

इसका बस चलता तो ये बदला भी लेती

पर इसका तो सपना

हर कोई हो अपना

इसीलिए ये सब दर्द सह जाती

सबको मंजिल तक पहुंचाती 

मालूम है इसे कि कहीं हर घर में 

कुछ जोड़ा आँखें हैं किसी के इंतज़ार में 

कभी तेज़ रफ़्तार में

फनफनाती कार में

देखो ब्रेक लगा के 

कैसे चिन्चियाती है ये

जैसे कोई बल प्रयोग करे

और मुंह भींच के चीखने भी न दे


- वाणभट्ट









गुरुवार, 5 मई 2011

टीम (TEAM)

टीम (TEAM)

Together Everyone Achieves More

लेकिन हमको तो आगे जाना है 
औरों से कुछ ज्यादा पाना है

इसीलिए तो हमने कितनी टंगड़ी है मारी
इसीलिए तो हमने कितनों की तोड़ी यारी


इसीलिए हम चौराहों पर बिकते हैं
इसीलिए हम भ्रष्टाचारी के हाथों पिसते हैं 


शर्मा जी ने तो बस ये ही ठाना है
वर्मा जी से जल्दी ऊपर जाना है 

शर्मा जी ने वर्मा जी की चुगली कर दी
वर्मा जी ने भी मौका पाकर उंगली कर दी

बॉस ने भी दोनों को खूब लड़ाया 
एक प्रमोशन के लिए दोनों को झेलाया

क्या-क्या पापड़ ना दोनों से बेलाये
अपनी सब्जी छोड़, बॉस की सब्जी लाये

अब वर्मा जी जोग्गिंग करते हैं, साथ बॉस के 
शर्मा जी भी हैं लिए तौलिया खड़े, पास पूल के

शर्मा जी की बीवी ने किटी बनाई
बॉस की बीवी फ्री में गेस्ट बुलाई 

वर्मा जी की बीवी ने भी बुटिक बनाया
बॉस की बीवी से उद्घाटन करवाया 

दोनों को अपने प्रमोशन की पड़ी है
बॉस और उसकी बीवी की तो निकल पड़ी है

अग्रेजों ने भी हमें लड़ाया, राज किया
सारा सिस्टम ध्वस्त कर, वापस लौटाया

अब के बॉसओं का तो और बुरा है हाल
अपना फायदा देख सब चलते अपनी चाल

शायद उन्हें मालूम नहीं 
टीम शब्द का ज्ञान नहीं

हमीं हम है तो क्या हम हैं
लारा-तेंदुलकर भी कम हैं

अकेले हम और अकेले तुम, यही तो गम है
मिल के साथ चलें तो फिर क्या कम है

बंधी मुट्ठी लाख की, ये बात सही है
साथ-साथ जो आगे बढ़ती, टीम वही है

- वाणभट्ट 







रविवार, 1 मई 2011

हमारी विरासत

हमारी विरासत 

जिंदगी के दस्तावेज़ 
रख दो सम्हाल के 
कि
आने वाली जिंदगियाँ 
आसान हो जाये.


तुम्हारी दुश्वारियां, 
मत समझो, 
बेकार जायेंगी.
पड़ीं हैं जो
मुश्किलें तुम पर,
समय के हर पड़ावों पर,
किसी के काम आएँगी.

लिख के रख दो
कि
तुमने कहाँ-कहाँ ठोकरें खाईं. 
कैसे डूब कर उबरे, 
कैसे खींच कर किश्ती 
समंदर 
से 
किनारों तक लायीं. 
कैसे डूबते तारों को, 
भयावह स्वप्न सा देखा.
कैसे उगते सूरज से तुमने,
प्रेरणा पाई.

बांटो अपने तजुर्बे,
हर किसी से
कि
ये ही एक विरासत है.
जिसे 
हम सहेज सकते हैं.
आने वाली नस्लों
के लिए 
कोई लीक दे सकते हैं.

बड़े ही कारगर लगते हैं 
अब नुस्खे ये.
अनुभवों के थपेड़ों से,
खुद खोजे थे ये रस्ते.

जिंदगी गलतियाँ करने का, 
भला कब वक्त देती है.
उतर जाये जो पटरी से,
तो काफी वक्त लेती है.

इतनी सारी गलतियाँ,
इतना छोटा जीवन.
गलतियाँ करना 
और 
करके सीखने के लिए 
बहुत 
कम है जिंदगी एक.

इसलिए 
सिर्फ इसलिए
गलतियों का अपनी
पुलिंदा बना दीजिये
और बड़ी-बड़ी इबारतों में लिखवा दीजिये
कि
इस रस्ते से जाना मना है
आगे बड़ा खतरा है
शायद
कोई इन पुलिंदों को पलटे
और कुछ गलतियों से बच जाये

लेकिन फर्स्ट हैण्ड तजुर्बे के बिना
जिंदगी कुछ डल
कुछ बोझिल तो न हो जाएगी

खैर हम अपना काम करते हैं
जिंदगी गलतियों के दस्तावेजों को
कलम देते हैं
पढना, न पढना अगली नस्लों के हिस्से है

हमने भी कहाँ टटोले थे 
पिछले दस्तावेज़.
नहीं तो जिंदगी
कितनी आसां होती?

- वाणभट्ट 








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संस्कार शब्द जब भी कान में पड़ता है तो हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान का ही ख़्याल आता है. भारत में विशेष रूप से हिन्दुओं के संदर्भ में संस्कार का ...