रविवार, 13 नवंबर 2011

पावर हॉउस

पावर हॉउस


(ये कहानी पूरी तरह काल्पनिक है और इसका किसी जीवित या मृत व्यक्ति से कोई लेना देना नहीं है.)


शहर जहाँ से लगभग खत्म होता है, वहीं एक छोटा सा ढाबा है. कौतुहल से दूर, शांत और गंवई हवा में पूरी तरह डूबा हुआ. ढाबा छोटा ज़रूर है, पर है बहुत ही एस्थीटीकली डिज़ाइंण्ड. आगे फूलों की क्यारियां हैं, जिसमें मौसम के हिसाब से पौधे बदल जाते हैं. पीछे लॉग-हट टाइप के पांच-छः झोंपड़े बेतरतीब से सजे खड़े हैं. खाने की टेबलें इन्हीं झोंपडेनुमा शेड्स में रक्खी हैं. एकदम पीछे कंक्रीट की छत के नीचे चमा-चम चमकते भगोने दिन में हाइवे पर चलने वालों का ध्यान खींचने के लिए काफी हैं. रात का नज़ारा चाइनीज़ लाइटों की जगमगाहट में और भी मनोहारी हो जाता है. हल्के-हल्के बजती मेंहदी हसन की गज़लें या आबिदा परवीन के सूफियाना गीत माहौल को और खुशगवार बनाने में बची-खुची कसर पूरी कर देते. यह ढाबा इतना अलूफ और सुकून वाला है कि शहरी लोगों का एक पसंदीदा डेस्टिनेशन बन गया है. शाम होते-होते गाँव की ठंडी बयार और इस ढाबे का स्वादिष्ट खाना उथल-पुथल भरी शहरी ज़िन्दगियों को बरबस खींच लाता. शनिवार और रविवार को तो अक्सर बुकिंग तक की नौबत आ जाती. कोई भी आने वाला ढाबे के मालिक के मधुर स्वभाव और उम्दा पसंद को एप्रिशिएट किये बिना नहीं रह पता.


उस रात जब मै डिनर के इरादे से पहुँचा तो माहौल हमेशा की तरह खुशगवार था. चूँकि मै अकेला था, मेरे लिए खुले लॉन में इंतजाम कर दिया गया. यहाँ रोशनी कुछ कम थी पर लॉग-हट में लगीं बाकी मेजें सहज विजिबल थीं, जिससे अकेलेपन के एहसास में कुछ कमी ज़रूर होती थी. खाने का आर्डर देने के बाद मैं सुकून से वातावरण में तैरती मेंहदी हसन की आवाज़ से मुतास्सिर हुआ - उनसे अलग मै रह नहीं सकता इस बेदर्द ज़माने में, मेरी ये मज़बूरी मुझको याद दिलाने आ जाते हैं...कोई जल्दी नहीं थी. जल्दी होती तो शहर से इतनी दूर आता ही क्यों. 


तभी एक तल्ख़ आवाज़ मेंहदी हसन की आवाज़ पर तारी हो गयी. एक टेबुल पर बैठा फ्रेंचकट दाढ़ी वाला शख्स अपना आपा खो बैठा था. उसने दाल का पूरा कटोरा वेटर के ऊपर दे मारा था. "ये दाल है तुम्हारी. एकदम जला डाली. दाल बनाना भी नहीं आता तो चिकन क्या ख़ाक बनाओगे. पूरा मूड चौपट कर के रख दिया. अबे अब खड़ा क्या है. जा जाके अपने मालिक को भेज". बंदा बहुत गरम हो रहा था. मालिक शोर सुन कर उस मेज़ की ओर पहले ही बढ़ चुका था. बैरा बड़बड़ाने लगा था कि कहाँ-कहाँ से रईसजादे चले आते हैं. इतने बड़े लाट साहब हो तो जाओ किसी फाइव स्टार होटल में. शहर में होटलों की कौन सी कमी है. इतना सुन कर तो वो रईसजादा हत्थे से उखड गया. और गुस्से में पूरी मेज़ ही पलट दी. 


मालिक ने बैरे को चुप रहने की हिदायत दी और खिसक लेने का इशारा करते हुए बीच-बचाव की मुद्रा में आ गया. "क्या हो गया साहब. ये तो हमारे यहाँ की स्पेशल दाल मक्खनी है. आप नाहक बैरे से उलझ पड़े. ये तो कम पढ़े-लिखे लोग हैं. आपको मुझसे कम्प्लेंट करनी चाहिए थी". अपने सुरुचिपूर्ण टेस्ट की तरह ही मालिक मधुर और मीठा था. ढाबे की गुडविल का सवाल था, सो मालिक उसे खुश करने में लग गया. " साहब आप लोग दूसरी टेबल पर बैठ जाइये. कभी-कभी गड़बड़ी हो जाती है. मै आपको अपने यहाँ की सबसे लज़ीज़ डिश शाही मुर्गमुसल्लम खिलवाता हूं. पसंद आये तभी पेमेंट कीजियेगा. मै अश्योर करता हूँ आप बार-बार यहाँ आना चाहेंगे". ढाबा मालिक इतना शरीफ होगा मैंने कभी सोचा न था. उसने सभी को दूसरी मेज़ पर बैठा कर उनका आर्डर भी खुद ही बुक कर दिया. पूरा ग्रुप संतुष्ट होकर नई टेबल पर बैठ गया.


अब फ्रेंचकट दाढ़ी वाला शख्स ठीक मेरे सामने था. मैं उसे गौर से देखा तो शक्ल कुछ जानी पहचानी सी लगी. ये तो लालाबत्ती का लड़का लग रहा है. वही जो हमारे पुराने मोहल्ले में साथ-साथ पला बढ़ा था. आजकल कहीं विदेश में सेटेल है. लालाबत्ती का ध्यान आते ही मेरे सामने सारा सीन फ्लैश-बैक की तरह घूमने लग गया. लालबत्ती हमारे पुराने मोहल्ले में रहते थे. सारे मोहल्ले में वो इसी नाम से फेमस थे. इतना फेमस की शायद ही कोई उनका असली नाम जानता हो. इस नाम की भी एक अंतर्कथा थी.


लालाबत्ती बिजली विभाग में काम करते थे. और जैसा की हर विभाग में  होता है, उसकी सुविधाएं फ्री में लेना कर्मचारियों का जन्मसिद्ध अधिकार होता है. लालाबत्ती बिजली के प्रति ऐसा ही सहज भाव रखते थे. लिहाज़ा बिजली के मीटर और वैध कनेक्शन की उन्हें कभी आवश्यकता महसूस ही नहीं हुई. बल्कि ये उनकी एकमात्र शान की तौहीन से कम न था. कटिया मार कर बिजली हरण के लिए उन्होंने हमारे मोहल्ले में अग्रज और पथप्रदर्शक होने का गौरव भी प्राप्त किया. उनकी देखा-देखी और लोगों ने भी कटिया व्यवस्था को सुदृढ़ करने में यथासंभव-यथाशक्ति योगदान दिया. हमारे मोहल्ले का नाम बिजली के नैसर्गिक उपयोग में लिम्का या गिनिस रिकॉर्ड में तो नहीं पर बिलजी विभाग की लिस्ट में शीर्ष स्थान पर आ गया. कर्टसी लालाबत्ती. लोग उनकी आड़ में जितना मज़ा तब संभव था, (उन दिनों लोगों को ए.सी., फ्रिज, हीटर, टी.वी. का ज्ञान न था) पूरा लूट रहे थे.


सामने जो हो रहा होता है उस पर शायद किसी का नियंत्रण होता हो, लेकिन जो पीठ पीछे हो उसका पता तो बस ईश्वर को हो सकता है, वर्ना हमारा मोहल्ला, जो उन दिनों खुशहाल मोहल्लों में शुमार था, पर यूँ गाज न गिरती. आकाश में सितारे और ग्रह अपनी-अपनी चाल चलते रहते हैं, और यहाँ आदमी की ऐसी की तैसी हो जाती है. एक बार बिजली विभाग में कोई कड़क अफसर आ गया. जिसे वाकई रेवेन्यु की चिंता हुई. उसने सभी नामी-गिरामी मोहल्लों की फेहरिस्त दरकार की. यहाँ ये याद दिलाना ज़रूरी नहीं है कि हमारे मोहल्ले को शीर्ष स्थान पर देखना शहर के बाकी मोहल्लों को फूटी आँख न सुहाता था. सितारों ने साजिश रची और हमारे मोहल्ले पर रेड का नंबर सबसे पहले आना बदा था, सो सबसे पहले नंबर लगा भी. विभाग के सोये हुए अधिकारियों ने हफ़्ता वसूली के बावज़ूद गज़ब की फुर्ती दिखाते हुए छापा मारा, आनन्-फानन में कटियाँ नोच डालीं और कनेक्शन रेग्युलराइज़ करने का अल्टीमेटम दे डाला.


मोहल्ले में कोई हार्डकोर क्रिमिनल तो था नहीं. सभी नौकरी-पेशा करने वाले डरपोक किस्म के लोग थे. सभी ने कनेक्शन रेग्युलराइज़ करा लिया. पर लालाबत्ती ने इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया. बिजली विभाग में रहते  हुए अगर बिजली मोल ली तो लानत है. विभाग के लोगों ने समझाया कि अफसर अक्खड़ है बाद में देख लिया जायेगा. पर लाला थे कि अपने बर्थ-राइट पर अड़े पड़े थे. उनकी भी कटिया नोच ली गयी. अफसर ने जवाब-तलब किया सो अलग से. क्या लाला की फाइल और क्या लाला की सी.आर. सब रंग गयी. केस बिगड़ चुका था. पर लाला कहते कि विभाग वाले न सिर्फ कटिया लौटायेंगे बल्कि माफ़ी भी मांगेंगे. ऐसा न होना था, न हुआ. अब सारा मोहल्ला रोशन था पर लाला के घर पर अँधेरा छाया रहता. लाला की लड़ाई जारी थी.


पर ज़ालिम ज़माने को चैन कहाँ? और वो पडोसी भी क्या जो दूसरे के फटे में अपना आनंद न खोज लें. लोग पूछते लाला जी बत्ती कब आएगी. लाला जी यथासंभव निर्विकार भाव से बताने लगते कि लगे हुए हैं, ऊपर तक हिला रक्खा है, अफसर की भी भेद-भाव की कम्प्लेंट कर दी है, सबके कच्चे चिट्ठे हैं मेरे पास आदि-आदि. न लोगों ने पूछना छोड़ा न लाला ने बत्ती लगवाने का प्रयास किया. शनैः-शनैः लोगों को इसमें मज़ा आने लगा और लाला को गुस्सा. अब कोई बत्ती का ज़िक्र करता तो लाला भड़क जाते. किसी ने थोडा ज्यादा इंटेरेस्ट लिया तो तय था कि वार्तालाप का समापन लाला की गालियों से होगा. लोगों को लाला में और मज़ा आने लगा. 


बड़ों को तो चुटकी लेने में मज़ा आता ही था, अब तक बच्चे भी लाला की इस चिढ से वाकिफ़ हो चुके थे. खेलने-खालने के बाद सब बच्चे लाला के घर के सामने बने मन्दिर के चबूतरे पर इकठ्ठा हो जाते और एक सुर में चिल्लाते - लाला बत्ती आई. और लाला जी अन्दर से लाठी-डंडा लिए गाली देते बाहर आ जाते. लडके कुछ और तड़का लगाते तो लाला उन्हें डंडा लेकर दौड़ा लेते. बच्चे तितर-बितर हो कर भाग लेते. थोड़ी देर बाद फिर एकत्र हो कर अपनी हरकतों को दोहराते. ये हर शाम का सिलसिला बन गया था. एक लड़का चिल्लाता - "लाला जी", बाकी बच्चे समवेत स्वर में चिल्लाते - "बत्ती आई". एक लड़का चिल्लाता - "लाला जी की", बाकी चिल्लाते - "बत्ती गुल". एक लड़का चिल्लाता - "लाला जी की", बाकी चिल्लाते - "बत्ती ठप्प". कुछ बदमाश बच्चे स्कूल से आते-जाते घर के सामने सिर्फ़ 'आई, गुल या ठप्प चिल्ला कर निकल जाते. इस तरह लाला जी के कई नाम पड़े - लालाबत्ती आई, लालाबत्ती गुल, लालाबत्ती ठप्प. मोहल्ले के बड़े बुज़ुर्ग लालाबत्ती से ही काम चला लेते. 


जब तक हम उस मोहल्ले में रहे, लाला की बत्ती न आनी थी न आ सकी. बच्चे भी बड़े हो रहे थे. सो पढाई और काम-धंधे की फ़िक्र में लग गए. लेकिन लाला का घर बिजली नहीं देख सका. पर अब वो चिढ़ने-चिढ़ाने वाली बात न रही थी. लाला ने शायद हालात से समझौता कर लिया था. पर उनकी ज़िद खत्म होने का नाम न लेती थी. ये ज़िद की पराकाष्ठा ही थी, मैंने खुद न देखी होती तो सहज विश्वास करना कठिन है. लेकिन अगर लाला ऐसे ज़िद्दी न होते तो भला उस आम कद-काठी के मिडिल क्लास इंसान तो कौन याद रखता. हम लोग भी दूसरे मोहल्ले में शिफ्ट कर गए. बहरहाल लोगों से हाल मिला करता था कि लाला अपने जीते-जी बिजली बहाल न करा पाए. उनकी इस सनक ने बीवी-बच्चों से भी उनसे दूर कर दिया. बिजली बहाली के उनके प्रयासों ने उन्हें तोड़ के रख दिया. परिवार के जाने के साथ, उम्मीद की बची-खुची रोशनी भी उनसे दूर हो गयी थी. इसलिए उन्हें बिजली की आवश्यकता ही न रह गयी हो, ऐसा भी हो सकता है. 


ये साहब उन्हीं के साहबजादे थे. मेरा खाना आ चुका था. जो हमेशा की तरह गरम और सुस्वाद था. पर लालाबत्ती के बेटे की मेज़ पर अभी भी कोहराम की अवस्था बनी हुई थी. ढाबा मालिक अभी भी अपने ग्राहक को खुश कर पाने की उम्मीद पाले बैठा था. आफ्टरऑल एक एन.आर.आई. का मामला था. पर मुझे अतीत दिखाई दे रहा था. यहाँ भी फ्री खाने का जुगाड़. पतंग जब आसमान में होती है तो भूल जाती है कि वापस उसे ज़मीं पर ही आना है. और वो पतंग ही क्या जो ऊंचाई पर जा के बहके नहीं. जी में आया कि बीच-बचाव करूँ, पर डर था कि ढाबा मालिक पर अपना इम्प्रेशन ख़राब न हो जाए. मन ही मन मै पुराने दृश्यों को याद कर मुस्करा रहा था. और सोच रहा था कि किसी ने शायद ऐसे ही लोगों के लिए मुहावरा गढ़ा है कि 'बाप मरे अंधियारे में और बेटवा के नाँव पावर-हॉउस'.                      


- वाणभट्ट             

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