रविवार, 19 फ़रवरी 2012

नथिंग पर्सनल अबाउट इट

ऑफिस से घर आया ही था कि बच्चों ने काम लगा दिया. पापा परेड से कोई किताब लानी है. हम शहर के बाहर रहने वालों को कोई शहर जाने को बोले तो बुखार आ जाता है. बच्चों की पढाई का मामला था, सो जाना ही पड़ता. बच्चों की भी कोई साजिश लगती है कि बाप को घर पर न रहने दो. रहेगा तो कुछ न कुछ उल्टा-पुल्टा काम लगाये रहेगा. श्रीमती जी से सेटिंग इतनी तगड़ी है कि क्या बताएं. घर में कुछ गड़बड़ हो जाये, शीशा टूट जाये, शो-पीस ध्वस्त हो जाये, रिमोट काम करना बंद कर दे, पेलमेट उखड आये, अलबत्ता तो मुझे पता ही नहीं चलेगा. और चल भी गया तो किसकी कारस्तानी है, ये पता करना तो नामुमकिन है. गैंग के तीनों मेंबर, मेरी बीवी, बेटा और बेटी, मुस्कराते रहेंगे पर क्या मजाल कि जुबान खोल दें.


यहीं पता चलता है कि लड़कियाँ बाप को क्यों प्रिय होती हैं. जब मेरे गुस्सा करने कि सम्भावना न्यून स्तर पर होती है, (दो-तीन दिन बाद मै जब घटना को भूल चुका होता) तब वो मेरी गोद में बैठ बड़ी मासूमियत से पूरी घटना को पुनर्जीवित करती है. जब कोई ऐसी घटना या दुर्घटना घटती तो उनका प्रयास होता कि ऑफिस से लौट कर पापा को कुछ देखने-सोचने-समझाने का मौका न दो. वर्ना चाय तो बुड्ढा बाद में पियेगा, प्रवचन पहले पिलायेगा. यहाँ ये बताना आवश्यक है कि मेरे घर में बच्चों कि पिटायी बिल्कुल नहीं होती. और गुस्से में तो कतई नहीं. कभी-कभी उनकी पीठ की सहन शक्ति बढ़ने के लिए एकाध धौल ज़रूर मार देता हूँ, ये बताने के लिए कि बेटा हमारे गुरु और पडोसी भी हमें इतना स्नेह दिखाने से नहीं चूकते थे. तात्पर्य ये है कि मै भारत वर्ष में उपलब्ध बच्चों को ठोंकने-पीटने की इस सुविधा का सदुपयोग नहीं कर रहा हूँ. और अपने आप को पुरातनपंथी बापों की श्रेणी से अलग रखता हूँ.

जब आते-आते ही मेरा काम लगाया गया तो सशंकित भाव से मैंने चारों ओर दृष्टि घुमाई. सब चीजें सही-सलामत लग रहीं थीं. सारे शो-पीस यथावत रक्खे थे. एक भी शीशा क्रैक नहीं लग रहा था. सरसरी निगाह से मैंने पूरे घर का आँकलन कर लिया. फिर इस नतीजे पर पहुँचा कि कभी-कभी इनकी डिमांड जिन्यून भी होती होगी. गैंग मेरी गतिविधियों को ओंठ भींचे भाँप रहा था. आश्वस्त हो के मैंने कहा "भाई कुछ चाय-पानी तो पी लेने दो". बच्चों की माता जी तुरंत आगे आ गयीं "अरे, पापा को थोडा रेस्ट तो कर लेने दो. घर घुसते ही तुम लोग फरमाइश रख देते हो. मै अभी चाय ले कर आई. हाँ, जब शहर जा ही रहे हो तो बच्चों के लिए पिज्जा लेते आना. इन्हें पिज्जा पसंद है. हम लोग भी वही खा लेंगे. दो लोगों के लिये अलग से क्या पकाना." तीनों आँखों ही आँखों मुस्कराए. मै समझ गया मेरा बकरा बन चुका है. यहाँ ये बताना जरूरी है कि तब तक स्विग्गी-ज़ोमैटो का आविर्भाव नहीं हुआ था और डोमिनोज़ का पहला आउटलेट नवीन मार्केट के पास कहीं हुआ करता था.

श्रीमती जी ने जल्दी जल्दी चाय-पानी-नाश्ता कराके मुझे गेट के बाहर कर दिया. बच्चे भी बहुत विनम्र भाव से बाय करने के लिये आ गये. उनकी आँखों में जो चमक थी वो बाप को जानबूझ का बेवकूफ बनने के लिये प्रेरित करती है. आखिर उन्हीं की ख़ुशी के लिए तो इतने बवाल पालने पड़ते हैं. 

शहर कोई पंद्रह किलोमीटर दूर था. कानपुर जैसे शहर की ख़ासियत है की अगर आपको ज़ल्दी है तो आप यात्रा का लुफ्त नहीं उठा सकते. इस शहर का मज़ा लेना है तो जाम को एन्जॉय करना सीखिये. यहाँ दूरी किलोमीटर में नापना बेमानी है. दो किलोमीटर की दूरी में दो घंटे भी लग सकते हैं. उस दिन किस्मत साथ थी, लिहाज़ा मैंने ये यात्रा तक़रीबन पैंतालिस मिनट में ही पूरी कर ली. पंद्रह मिनट पुस्तक की दुकान खोजने में और पंद्रह मिनट दुकानदार को किताब खोजने में लग गये. घर से निकले मुझे पूरे सवा घंटे हो गए थे. जब पेमेंट के बाद किताब मेरे हाथ में आई, तब पहली बार मेरे पेट के निचले हिस्से ने कुछ दस्तक दी.

जल्दबाजी में ऑफिस से लौट कर मै फ्रेश होना भूल गया था. ऊपर से दो गिलास पानी और एक कप चाय ने अब अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया था. दुकान वाले से पूछा "भाई कोई जगह है, यहाँ खाली होने की". दुकानदार मुस्कराते हुए मेरी तरफ मुख़ातिब हुआ "क्या साहब जगह ही जगह है. मार्केट से बाहर निकल कर बायीं हाथ एक पतली गली है. वहाँ की आबोहवा थोड़ी ठीक नहीं है, पर क्या करें. म्युनिसिपल कारपोरेशन ने मार्केट बनाते समय इस बात पर विचार ही नहीं किया. हम तो वहीं जाते हैं, एक नंबर के लिए. दो नंबर के लिए तो रेलवे स्टेशन तक जाना पड़ता है". आबोहवा की बात सुनते ही मैंने उस गली में घुसने का विचार त्याग दिया. रेलवे स्टेशन कम से कम २ कि.मी. दूर था पर वहां जाम लगाने का अंदेशा भी अधिक था. सोचा मार्केट से कुछ दूर जा कर प्रयास करूँगा.           

आते समय मार्केट जो कुछ खाली-खाली था. समय के साथ अपने पूरे शबाब पर आ चुका था. मेरी मारुति 800 से सटा कर किसी ने अपनी कार लगा दी थी. मैंने मन ही मन उस कार वाले को क्या-क्या कहा प्रबुद्ध पाठक समझ ही रहे होंगे. पर मेरी स्थिति का आँकलन वो ही कर सकता है जो इस परिस्थिति से गुजरा हो. और इस जीवन में सभी के साथ ऐसा ज़रूर हुआ होगा. तभी मुझे पिज़्जा की याद आ गयी. वो भी तो लेना था. चलो जब तक ये कार हटे, ये काम भी निपटा लूँ. ये सोच कर मै रेस्टोरेंट की ओर बढ़ गया. एक उम्मीद थी की शायद यहाँ कोई जुगाड़ बन जाए. घुसते ही मैंने अपने निर्दिष्ट स्थान के लिए जानकारी माँगी. बैरे ने जैसा मुँह बनाया, उस स्थिति में मेरे मन-मस्तिष्क पर संडास की शक्ल कौंध गयी. शायद ऐसी ही परिस्थितियों के लिए मुहावरा सावन के अंधे को हरा ही हरा दिखाई देता है रचा गया होगा. मुझे संडास की दरकार थी सो हर तरफ वही नज़र आ रहा था. बोला "है न वो मार्केट के बगल में पतली वाली गली. बायें हाथ को". मुझे अब समझ आया कि बेचारे कि शक्ल वैसी क्यों बन गयी थी. वहाँ कि आबोहवा संभवतः उसके जेहन में घूम गयी हो. घर अभी भी डेढ़ घंटे की दूरी पर था. एक घंटा यात्रा का और आधा घंटा पिज्जा बनने का. 

पिज़्जा का आर्डर दे कर मैंने सोचा चलो जब पूरा मार्केट उस गली को कृतार्थ कर रहा है तो हम भी कोशिश कर के देख लें. फर्स्ट हैण्ड निरीक्षण में ही असली बात पता चलती है. गली जैसा लोगों ने बताया था, वाकई पतली थी. और उसकी तरावट को गली के मुहाने से ही महसूस किया जा सकता था. मुझे अनायास एक शेर याद आ गया, ये इश्क नहीं आसाँ बस इतना समझ लिए, एक आग का दरिया है और डूब के जाना है. तैरने के फन में मैं वैसे भी कुछ कम ही माहिर हूँ, सो ये इरादा मुझे ड्रॉप करना पड़ा. और ये मामला भी इश्क़ का नहीं था. पिज़्जा पैक करवा के जब तक मै लौटा मेरी खुशकिस्मती से वो कार हट रही थी और दूसरी वहाँ लगने की फ़िराक़ में तत्पर खड़ी थी. मैंने दौड़ कर कार लगाने वाले को रोका. बहुत ही भला मानुस रहा होगा जो मेरी बात को उसने नज़रंदाज़ नहीं किया. वर्ना भारत के अन्य शहरों की तरह इस शहर में भी बदतमीजों की सँख्या में बेतहाशा वृद्धि हुयी है. बड़ी गाड़ी वालों का बस चले तो सारी पृथ्वी को मारुति 800 विहीन कर दें. उनके विचार से ऐसे लोगों को कार रखने का कोई अख़्तियार है जो वक्त के साथ कार बदल न सकें. खैर ये समय विवेचना का नहीं था. मेरे लिए कार को शीघ्रातिशीघ्र बाज़ार से दूर ले जाना अत्यावश्यक था. 

लेकिन बाज़ार अब तक जाम की स्थिति में आ चुका था. सडकों का हाल तो पूरे यू.पी. में एक सा ही है. विश्व बैंक ने पता नहीं कितना रुपया शहरों में सीवर व्यवस्था के उत्थान के लिए दे दिया है. क्या कानपुर, क्या इलाहाबाद, क्या वाराणसी पूरा का पूरा शहर खुदा पड़ा है. एक शायर ने तो यहाँ तक कह दिया, यहाँ भी खुदा है, वहां भी खुदा है, जहाँ नहीं खुदा है वहाँ कल खुदा मिलेगा. मार्केट की सड़क भी कुछ ऐसी ही स्थिति से दो-चार हो रक्खी थी. मेरी बानगी ये थी कि हर आहट पे समझूँ वो आय गयो रे. ख़ैर शनै-शनै मै जाम के क्षेत्र से बाहर आ गया. पर उस दिन जिंदगी में पहली बार मुझे सोडियम लैम्प कि जगमगाहट से वितृष्णा सी हुई. दूर-दूर तक ये लाइट रोशन थी और मुझे तलाश थी एक अदद अँधेरे की.

सड़क भी वीआईपी थी. डीएम से लेकर पुलिस के आला अफसर सब उसी सड़क पर रहते थे. तभी आमिर का विज्ञापन भी याद आ गया. शर्म के ताज वाला. मुझे लगा की जैसे ही मै शुरू हुआ कोई ताज ले के मुझे पहनाने न आ जाये. और फोटो भी न खींच ले. और कल के अखबार में मै सुर्ख़ियों में न आ जाऊं. ये हिन्दुस्तानी हीरो ज़मीनी हक़ीक़त से कितनी दूर रहते हैं. खुद तो चलते हैं ऐसी गाड़ी में जिसमें पूरा घर चलता है, ड्राइंगरूम, बेडरूम, किचेन, बाथरूम और टॉयलेट भी. और दूसरों को प्रवचन देते हैं कि देश की नाक इस लघु कर्म से छोटी हो जाती है. कहते हैं कि इससे इनक्रेडिबल इंडिया कि छवि को धक्का लगता है. अरे भाई कोई इन्हें ये बताये कि ये देश इनक्रेडिबल ही इन्हीं कारणों से तो है कि जहाँ चाहे वहाँ थूको और जहाँ जो चाहो वहाँ वो-वो करो, जिस पर दूसरे देशों में पेनाल्टी लग जाती है. उनकी आज़ादी भी कोई आज़ादी है लल्लू. पूर्ण स्वतंत्रता का हमारा देश आज़ादी के पहले से कायल रहा है. अगर इस विद्रोह को करके लोग क्रांतिकारी कहलाते तो उस समय मेरी अदम्य इच्छा क्रन्तिकारी बनने की कर रही थी. मुझे आमिर पर भी बहुत गुस्सा आ रहा था. पहले जन-सुविधायें बनवाओ फिर एड करो. फिर चाहे मुझे इस जघन्य अपराध के लिए जेल भेज दो या सूली चढ़ा दो, बुरा नहीं मानूँगा. 

जैसा की मैंने पहले भी कहा था, उस दिन मेरी किस्मत बहुत अच्छी थी. एक सोडियम पर अँधेरा था. मेरी बांछें खिल उठीं. अपनी 800 और खम्भे की आड़ में मुझे जो सुख मिला वो वाकई इनक्रेडिबल था.

- वाणभट्ट                               
        

सोमवार, 6 फ़रवरी 2012

आज का युवा

आज का युवा

आज का युवा 
अपनी परिपक्वता को
तमगे की तरह
लगा के चलता है

उसे कुछ ही समय में 
आकाश छूना है

दौड़ लगी है
और हर कोई जीतना चाहता है
जब कि
मालूम है कि पिरामिड की नोक 
पर खतरा है किसी भी तरफ 
लुढ़क जाने का 

एवरेस्ट की चोटी पर
सिर्फ एक की जगह है
फिर भी असमंजस और अज्ञान से भरा वो 
दौड़ रहा है
एक मरीचिका से दूसरी 
फिर तीसरी की ओर
असमंजस को तो मानता है
पर अज्ञानता से अनभिज्ञ है

और पथ प्रदर्शक बुजुर्ग
अभी भी जकडे हैं 
जंग लगी रुढियों में
जो रोकतीं हैं 
उन्हें आकाश छूने से 

ये जोश भरे
युवा चमकना चाहते हैं
पिरामिड की चोटी पर
कुछ पल के लिए ही सही

ये धड़कती जवान रूहें
कम समय में 
कुछ कर गुजरना चाहतीं हैं
गुमनाम या गुमशुदा जीवन 
इनको नहीं गवारा
ये तो 
पल भर में दुनिया पलटना चाहतीं हैं


यही जूनून है
जो देश को आगे ले जायगा
इसी का तो
कब से इंतज़ार था


- वाणभट्ट 









संस्कार

संस्कार शब्द जब भी कान में पड़ता है तो हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान का ही ख़्याल आता है. भारत में विशेष रूप से हिन्दुओं के संदर्भ में संस्कार का ...