शनिवार, 10 अगस्त 2013

धर्म

धर्म


इधर जिंदगी ने कुछ फ़िलोसोफ़िकल टर्न लिया। जब तक आदमी जीत रहा होता है तो सिकंदर मोड में होता है और हारता है तो स्पिरिचुअल मोड में चला जाता है। वैसे हमारे महापुरुषों ने आदमी को भली-भांति समझ कर ही ये बात कही होगी - हारे को हरि नाम। फिर ज़िन्दगी की खासियत है कि आदमी समय के साथ जीत को भी भूल जाता है और हार को भी। हर समय नयी चुनौतियाँ सामने होतीं हैं और उन पर विजय के लिए आदमी सदैव संघर्षरत।



एक कहानी है। किसी विश्व विजेता को ये पता चला कि जितने लोगों ने विश्व विजय की उन्हें अपना नाम सुमेरु पर्वत पर दर्ज़ करना होता है। इस गरज़ से वो सुमेरु पर्वत तक भी पहुँच गए। उसे लगा कि विश्वविजय के बाद अगर नाम न लिखा तो सारी कवायद व्यर्थ चली जाएगी। वहां गेट पर एक दरबान बैठा ऊँघ रहा था। उसने पूछा कि क्या ये ही सुमेरु पर्वत है. दरबान ने कहा हाँ। फिर उसने बताया कि उसने पूरे विश्व पर विजय पा ली है और सुमेरु पर्वत पर अपना नाम लिखना चाहता है। दरबान जरा भी इम्प्रेस नहीं हुआ। बैठे-बैठे ही उसने चॉक का एक टुकड़ा उठाया और बोला नाम लिखने आये हो तो ये लो चॉक और पहाड़ी पर अपना नाम लिख आओ। विश्वविजेता गेट से अन्दर गया और थोड़ी देर में हैरान-परेशान लौट कर आया कि पूरे पर्वत पर तो कोई जगह ही नहीं है जहाँ वो अपना नाम लिख सके। दरबान ने कहा भाई कोई भी नाम मिटा दे और अपना लिख ले। कहने का तात्पर्य ये है कि धरती कभी वीरों से खाली नहीं हुयी है और हर सौ साल में इतने महान लोग पैदा हो जाते हैं कि हर किसी को याद रखना संभव नहीं है। हाँ जिन्होंने दिलों पर राज किया शायद वो अमर हो गए।



जीत शायद आदमी को और व्यस्त कर देती है अगली फतह के लिए और सोचने का मौका नहीं देती। पर हार आपको चिंतन करने को विवश कर देती है कहाँ हम गलत थे और कहाँ सही। जीतने  वाला पहले ही समरथ को नहीं दोष गुसाईं वाले फोरमैट में चला जाता है। इलाहाबाद में सिविल सेवा के सफल और असफल परीक्षार्थियों से मुलाकात हो ही जाती थी। उनमें सिर्फ इतना अंतर होता था सफल वाला कहता था मेरी मेहनत का नतीजा है और असफल कहता भगवान/भाग्य ने साथ नहीं दिया।



कुछ पिटने-पिटाने के बाद मुझे भी धर्म की शरण में जाना ही था। कमरे को कुटिया बना दिया और खुद को वानप्रस्थी। किसी ने बताया हनुमान चालीसा पढो तो किसी ने दुर्गा चालीसा का पाठ रिकमेन्ड किया। मेरी दादी नित्यप्रति सुन्दरकाण्ड पढ़ा या पढ़वाया करतीं थीं। वहीँ तक जब हनुमान जी सीता माता की गोद में भगवान राम की मुद्रिका डाल देते हैं। उसके बाद उन्हें भरोसा था कि राम अब उन्हें आज़ाद करा ही लेंगे। सबसे कठिन काम सीता जी को खोजने का था। मै बचपन से अपनी दादी के लिए सस्वर सुन्दरकाण्ड का पाठ किया करता था।  इसलिए मैंने सुन्दरकाण्ड पर भरोसा किया। हाँ वो घंटी लेकर आरती भी गातीं थी तो मुझे वो भी एक सहज पूजन विधि लगी। मुझे लगने लगा कि अब मै धार्मिक हो गया हूँ। फर्स्ट स्टेज के झटके से उबरने के लिए ये विधि बहुत ही कारगर रही।



फिर कुछ महापुरुषों को पढ़ने और समझने का मौका मिला। उन्हें चिंतन-मनन करने का सुखद अनुभव भी हुआ। धर्म की परिभाषाएं बनीं भी और टूटीं भी। अपनी आस्था पर भी प्रश्न उठे। और धर्म का एक नया स्वरुप दिखाई दिया। ये जितना सीधा और सरल शब्द है उसकी व्याख्या ज्ञानियों ने कठिन और दुरूह कर दी है। आम आदमी को पूजा पद्यति पकड़ा दी है और सार से दूर कर दिया है। बीच में मिडिलमेन और बैठ गए हैं भगवान के प्रतिनिधि बन कर। पर ये भी ज़रूरी हैं फर्स्ट स्टेज शॉक से बचने के लिए। यात्रा का पहला पड़ाव भी कह सकते हैं इसे। रोजमर्रा के काम से फुर्सत मिले तो धर्म के बारे में सोचा जाये तब तक ये पूजन पद्यति ही श्रेष्ठ है।



धर्म क्या है हम सब जानते हैं। अधर्म करने के लिए हमें सोचना पड़ता है धर्म के लिए नहीं। सत्य, सत्य होता है असत्य के लिए दिमाग लगाना पड़ता है। गाँधी या संत वो ही हो सकता है जो दिमाग का उपयोग समाज की भलाई के लिए करे न कि अपनी। पर धरती समझदार लोगों से अटी पड़ी है (मेरे हिसाब से जो देश जितना भ्रष्ट है उतने ज्यादा समझदार वहां वास करते हैं)। समझदार दुनिया के हिसाब से चलते हैं। अपनी समझ पर उन्हें ऐतबार नहीं होता शायद। वो एक संगठित माफिया गिरोह की तरह देश-समाज को चूसने में लगे हैं। जिस देश में हर आदमी धार्मिक हो वहां तो स्वर्ग होना ही चाहिए पर हम अभी भी मूलभूत समस्याओं से ऊपर नहीं उठ सके हैं।  हर आदमी सिर्फ इसलिए पूजा कर रहा है कि बाकि सब पूजा कर रहे हैं। अपने बचपन में मैंने इतने तीज-त्यौहार, व्रत-उपवास नहीं देखे जितने आज प्रचलित हैं। भ्रष्टाचार और नारी असम्मान की जितनी घटनाएं आज उजागर हो रहीं हैं ये हमारी अधार्मिक छवि को प्रदर्शित करते हैं। ऐसा सिर्फ इसलिए हो रहा है की हम जिस तरह धर्म की नक़ल करते हैं उसी तरह भ्रष्टाचार की भी। चूँकि सब कर रहे हैं इसलिए मुझे भी करना है। सब झूठ के सहारे आगे बढ़ रहे हैं तो झूठ बोलने से कैसा परहेज। सत्य-अहिंसा बच्चों के पाठ्यक्रम में ज़रूर हैं पर जीवन जीने की कला सिखाते समय बच्चे को हर कोई दुनियादारी सिखाना चाहता है ताकि वो इस भवसागर के सभी इम्तहान पास कर सके। ये बात अलग है कि दुनियादारी का पहला ट्रायल बच्चा उन्हीं पर करता है जो उसे ये सारी तकनीक सिखाते हैं। कितना बड़ा उलटफेर है जिसे हम धर्म मानते हैं उस पर चलने को तैयार नहीं हैं। इसलिए घंटी बजा कर, उपवास रख कर खुद को धार्मिक मान लेते हैं।



आदमी हमेशा से शांति की खोज में लगा रहा है। और ये उम्मीद उससे ही की जा सकती है जिसका पेट भरा हो।उसके पहले सारी कवायद पेट के लिए है। जिसका अधर्म सिर्फ पेट के लिए हो उसे कुछ हद तक जायज़ माना जा सकता है। पर जो दूसरे की रोटी पर नज़र गडाए बैठा हो उसकी सारी तपश्चर्या व्यर्थ है। धर्म का उद्भव बुद्ध से हो सकता है, महावीर से भी। उनके पेट भरे थे सो चिंतन कर सके। पर भरे पेटों की भूख ज्यादा हो तो उसका क्या इलाज हो सकता है। आदमी जब-जब परेशान हुआ कुछ महापुरुषों ने उनका मार्गदर्शन किया। वो एक मशाल की तरह जिए। जो उनके संपर्क में आया वो भी इन्लाईटेन हो गया। हमने उन्हें अवतार बना दिया। समय के साथ जब मशाल बुझ गयी तो हम अपने-अपने मशाल के डंडे को बड़ा बताने लग गए। जब कि जरुरत थी हम अपनी मशाल भी उस ज्योति से जला लेते। पर तब हमें खुद बुद्ध बनाना पड़ता। बुद्ध या ईसा को फोल्लो करना आसन है खुद बुद्ध या ईसा बनना कठिन। हमने आसन विकल्प चुना। घंटी बजाना आसान था तो घंटी बजा ली। सत्य और धर्म पकड़ना मुश्किल था तो उसे महापुरुषों के लिए छोड़ दिया। इससे हमें सहारा मिल गया कि हम महापुरुष को फोल्लो तो कर रहे हैं पर उन सा बनना अपने बस की बात नहीं है। अपन तो आम आदमी हैं। अन्ना के आन्दोलन में सबसे विशिष्ट बात थी हर टोपी पर लिखा था मै हूँ अन्ना। एक बुद्ध से कुछ नहीं होगा सबको बुद्ध बनना  होगा, तभी बात बनेगी।   



धर्म सिर्फ धर्म है। उसके अलावा जो कुछ भी है, वो अधर्म है। चाहे ये किसी भाषा में हो या किसी मज़हब में या किसी भी देश में। ये भी देखने को मिलता है जिन देशों में नियम और कानून का राज्य है, वहां धर्म भी ज्यादा सशक्त है, वहां धर्म की आवश्यकता भी कम है। जब हम धर्म की स्थापना नहीं कर पाए तभी नियम-कानून की आवश्यकता पड़ी। दोनों मानवता की भलाई के लिए हैं। धर्म और कानून की नज़र में हर इंसान सामान है। पहले लोग भगवान की सर्वव्यापकता पर भरोसा कर धार्मिक थे कि भगवान सब जगह सब कुछ देख रहा है। तकनीक के युग में ये काम सी सी टी वी  कैमरे ही कर सकते हैं। ऐसे तथाकथित धर्म से अब डर लगता है जो मानवता के खिलाफ हो।



पिछले कुछ दिनों से मेरी पूजा बदल गयी है। गुलज़ार की लिखी ये प्रार्थना हम अपने स्कूलों में गाया करते थे। तब धर्म और अधर्म से अन्जान थे, तब हम भी कुछ-कुछ भगवान थे। वो प्रार्थना शेअर कर रहा हूँ -




हर ज़र्रा चमकता है अनवार-ए-इलाही से
हर सांस ये कहती है हम हैं तो ख़ुदा भी है 

-वाणभट्ट           

विशेष : इस लेख में व्यक्त विचार सिर्फ मेरे नहीं हैं. विभिन्न किताबों में जिन बातों ने मुझे धर्म को समझने में सहायता की, जो बातें अच्छी लगीं  उन्हें साझा करने का प्रयास मात्र है ये लेख. किसी के विचारों को ठेस पहुँचाना उद्देश्य नहीं है यदि अनजाने में ऐसा होता है तो मै उसका क्षमाप्रार्थी हूँ.   

संस्कार

संस्कार शब्द जब भी कान में पड़ता है तो हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान का ही ख़्याल आता है. भारत में विशेष रूप से हिन्दुओं के संदर्भ में संस्कार का ...