शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

राज योग

राज योग

ज्योतिषी महोदय कुंडली में घुसे पड़े थे। पोस्ट ग्रेडुएशन के बाद नौकरी के आसार दूर-दूर तक दिखाई नहीं पड़ रहे थे। एक मित्र ने सलाह दी कि पोथी-पत्री भी बिचरवा लो। गृह-नक्षत्रों की चाल ज्ञानी पंडितों से छिपी नहीं रहती। जब आदमी कमज़ोर पड़ता है तो यही सब टोटके उसके लिए जीने का सम्बल हो जाते हैं। सब कुछ सही-सलामत चलता रहे तो कौन पूछता है इन ज्ञानी-ध्यानियों को। 



युवा ज्योतिषी के चेहरे पर एक अद्भुत तेज़ था, या बेरोज़गारी से मेरा तेज़ फीका पड़ गया था, कहना मुश्किल है। कुछ मिनटों की सघन गणना करने के बाद जब उसने कुंडली से ऊपर सर उठाया तो मुझे और मेरे मित्र दोनों को उसने अपनी भविष्यवाणी सुनने हेतु लालायित पाया। गुरु-गम्भीर आवाज़ में उसने फ़रमाया जातक की कुंडली में राज योग है। ये बहुत आगे जायेगा और राज सुख का भागी बनेगा। मैंने मन ही मन कहा बेटा ज़माने के साथ तू भी उड़ा ले मज़ाक मेरी मुफलिसी का। पर मेरा दोस्त खुश हो गया और उसके हाथ पर दस रूपया रख दिया। बाद में मैंने कहा यार ये दस रुपये तेरे उधार रहे। दोस्त बोला जब डी-एम, वी-एम बन जाओगे तो सब सूद-ब्याज़ सहित वसूल लूंगा। उसी के कहने पर जी एस की किताबें भी खरीद लीं आईएएस / पीसीएस के फॉर्म भर दिये। तथाकथित तौर पर भरसक तैयारी में जुट गया। विशिष्ट क्षेत्र में अध्ययन के बाद विकल्प सीमित हो जाते हैं। दूसरे विषयों के साथ प्रतियोगिताएं निकालना किसी चुनौती से कम नहीं है।



बहरहाल खुशकिस्मत रहा कि जिस विश्वविद्यालय से पढाई की थी वहीँ अध्यापन हेतु कुछ रिक्तियां आ गयीं। गुरु जी लोग मुझे अपनी विद्वता की वजह से तो नहीं पर चरणवंदन प्रवृत्ति के कारण जानते थे। सो उन्होंने घर से बुलवा कर अप्प्लाई करवा दिया। मेरा सेलेक्शन अवश्यम्भावी था और ऐसा हुआ भी। अध्ययन-अध्यापन ऐसा क्षेत्र है जिसमें गुरू शिष्यों को सिखाने की प्रक्रिया में विषय ज्ञान प्राप्त करता है। जो विषय पढते समय दुरूह लगते थे पढ़ाते-पढ़ाते कंठस्थ हो गए। विद्वत समाज में उठते-बैठते मुझे अपने ज्ञानी हो जाने के बारे में कोई संशय नहीं रह गया था। छात्र तो गुरु को खुश रखने में वैसे भी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रखते। मैंने भी कई घंटाल टाइप के गुरुओं की सेवा की थी जिसका मेवा अब मिल रहा था। तभी मैंने निर्णय लिया था कि अगर गुरु बनना है तो गुरु-घंटाल ही बनना है। इस विधा के सारे गुर मालूम ही थे। छात्रों में अपना भय क्रिएट करो। पढ़ाओ कम, डराओ ज्यादा। तभी सब चेले बन के रहते हैं। वर्ना सिर चढ़ जाते हैं। भगवान् राम ने भी भय बिन प्रीत की सम्भावना से इंकार कर दिया था। 



राज योग के अपने लक्षण होते हैं। तामसी प्रवृत्तियां न हों तो कैसा राज योग। इस नाते मैंने मांस-मदिरा जैसे आसुरी गुणों को अपनी जीवनशैली बना लिया। जब ताक़त होगी तभी तो इंसान शरीर का सम्पूर्ण आनंद उठा पायेगा। जिस समाज में अधिकाँश व्यक्तिगत उन्नयन का मूल में ही भ्रष्टाचार व्याप्त हो वहाँ कदाचार कब सदाचार बन जाता है किसी को पता ही नहीं चलता। दबंग और घूसखोर आदरणीय बन जाते हैं। ईमानदारी और देशभक्ति गुनाह में तब्दील हो जाते हैं। यहाँ दवाई की तस्करी करने वाला स्वास्थ्य मंत्री बन सकता है और राशन की  ब्लैक मार्केटिंग करने वाला रसद मंत्री। ऐसे देश में सफल से सफल व्यक्ति भी यदि केजरीवाल सरकार के बनने से पहले उसके के फेल हो जाने के प्रति आशान्वित नज़र आयें तो कैसा आश्चर्य। बहरहाल मैंने सीधा और सरल रास्ता अपनाया। सिद्धांत और मूल्यों के चक्कर में कभी खुद को नहीं बांधा। पाथ ऑफ़ लीस्ट रेसिस्टेंस। जैसे नदी अपना रास्ता खुद बना लेती है। ये बात अलग है कि वो सिर्फ ऊपर से नीचे ही जा सकती है। गिरना हमेशा चढ़ने से आसान होता है। धारा के विपरीत चलने में अनावश्यक शक्ति ह्रास होता है। उधर चढ़ने में शिखर है तो इधर गिर कर भी समुद्र मिलता है। त्याग करके यदि गांधी शिखर पर पहुँचता है तो भोग करके जिन्ना भी समुद्र तक पहुँच ही जाता है। 



शिखर में एक खराबी है। आप सबके स्कैनर पर होते हैं। पूरी दुनिया आपके फिसलने का इंतज़ार कर रही होती है। ज़रा भी चूके तो हर तरफ थू-थू। जगहंसाई के पात्र बनिए सो अलग से। कीचड़ में रहिये तो चाहे फिसलिये, चाहे लोटिये, चाहे डुबकी लगाइये किसी को आपति न होगी। सरकारें मुफ्त चावल बाँट सकतीं हैं, बेरोजगारी भत्ता और कंप्यूटर भी बँट सकता है। पर केजरीवाल जल माफियाओं के रहते दिल्ली को पानी कैसे पिलाता है इस पर सभी नेताओं और मीडिया की भयंकर दिलचस्पी है। 



खैर मै अपनी बात करता हूँ। दुनिया जैसे चलती है मैंने वैसे ही चलने का निर्णय लिया और देश-समाज के लिहाज से खासा सफल भी रहा। पीएचडी वालों से दारु के साथ मुर्गा और परास्नातकों से सिर्फ दारू वसूलना अपना एक मात्र उसूल था। जब सबको आपका रेट मालूम हो तो ज्यादा दिक्कत भी नहीं होती। सब राजी-ख़ुशी मेरी ये तुच्छ इच्छा पूरी कर देते। मै भी मस्त और बच्चे भी। छात्रों पर अपनी मजबूत पकड़ थी, इसी को मै राज योग का लक्षण समझ कर आनंदित हो लेता था।



पर असली राज योग क्या होता है ये मालूम होना अभी बाकी था। समय ने करवट ली और मै उसी विभाग का विभागाध्यक्ष बना जिसमें मै पढ़ा रहा था। सीनियॉरिटी के लिहाज़ से भी अपने सहकर्मियों में वरिष्ठ हो चला था। ये मेरी पहली प्रशासनिक उपलब्धि थी। अब तक मै अपने अग्रजों की सुख-सुविधाओं का ख्याल रखता था अब मेरे सबोर्डिनेटों का ये दायित्व था कि वे मुझे खुश रखें। मुझे खुश करना इतना कठिन भी नहीं था। चूँकि यहाँ सब मेरी पूरी कुंडली जानते थे इसलिए ज्यादा दिक्कत नहीं हुयी खुद को स्थापित करने में। पर असली चुनौती तब शुरू हुयी जब मेरी नियुक्ति दूसरे प्रदेश में एक संस्थान के निदेशक के तौर हो गयी। नए लोग, नए माहौल में खुद को स्थापित करना एक चुनौती से कम नहीं था। पर अब तक मै सहज मानवीय गुणों में प्रवीण हो चुका था। ऊपर वालों को कैसे खुश रखना है ये मेरी सहज प्रवृत्ति में आ गया था। कोई प्यार से बिकता है, कोई सेवा से, तो कोई पैसे से। जिसको जो चाहिये मेरी पोटली में सबके लिए कुछ न कुछ था। पर नीचे वालों को पालतू बनाने के गुर अभी सीखना था।



अन्य अपने सरीखे (पीने-खाने वाले) निदेशकों के समक्ष जब अपनी समस्या बखान की तो सुझाव तुरंत मिल गए। पहला सरकारी नौकरी का आदमी सिर्फ और सिर्फ काम करके आगे नहीं बढ़ सकता। उसकी सी आर अफसर के हाथ होती है। सभी कर्मचारियों में इसका खौफ होना चाहिए इसी के अतिउत्कृष्ट या उत्कृष्ट होने पर उनकी पदोन्नति निर्भर रहती है। दूसरा लाइक माइन्डेड लोगों को साथ रक्खो। तीसरा आम कर्मचारी से खुद को दूर रखने से आपके बारे में हर कोई जान नहीं पता और सदैव सशंकित रहता है। पहले और तीसरे के बारे में तो कोई संशय नहीं था। दूसरे को इम्प्लीमेंट करने में मेरी आसुरी प्रवृत्तियों ने साथ दिया। मैंने लौटते ही सारे अपने नीचे के उच्च पदस्थ सहकर्मियों को दारु और चिकेन की पार्टी का न्योता दे डाला। मुझे विश्वास था लाइक माइन्डेड ऐसे ही मिल पाएंगे। साथ ही अनलाइक माइन्डेड लोग भी चिन्हित हो जायेंगे। ऐसा हुआ भी। अब वो लोग जो संघर्ष कर के शिखर तक जाना चाहते हैं सारे चिन्हित हो चुके हैं। मै उनके संघर्ष तो कठिन बनाने में यथाशक्ति-यथासम्भव योगदान कर रहा हूँ। लाइक माइन्डेड लोगों को अब पार्टी देनी नहीं पड़ती अब वे ही मुझे पार्टी देते हैं। आजकल मेरी पांचों उँगलियाँ घी में हैं और सर कढ़ाई में। जिधर मै निकल जाता हूँ लोग दड़बे में घुस जाते हैं। झुक-झुक के सलाम करते लोग किसे अच्छे नहीं लगते। इस प्रदेश के लोग वाकई उलटे हैं जितना लतियाओ उतनी वफ़ादारी पाओ। चार सौ साल की गुलामी और अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था ने गुलाम ही पैदा किये हैं। आदमी का राज आदमी के ऊपर यही राज योग है। 



मेरा राज योग अब शुरू हुआ है। राज योग शायद ऐसा ही होता हो। 



- वाणभट्ट 




    

5 टिप्‍पणियां:

  1. आदमी का राज आदमी के ऊपर और इतनी जद्दोज़हद भरा राजनीतिक, स्वार्थपरक खेल..... सच दुखद ही है

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  2. bahut badhai Raj Yog prapti ki...shayad isi ko kahte hain Raj Yog!! Sateek evam karaara!!

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  3. राज योग तो ब्रह्मा कुमारी के यहाँ अच्छा होता है जो आनंद योग तक ले जायेगा

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  4. आदमी के ऊपर आदमी का राज .... सटीक व्यंग्य

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यूं ही लिख रहा हूँ...आपकी प्रतिक्रियाएं मिलें तो लिखने का मकसद मिल जाये...आपके शब्द हौसला देते हैं...विचारों से अवश्य अवगत कराएं...

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