बुधवार, 19 मार्च 2014

मि. एक्स इन इलाहाबाद

मि. एक्स इन इलाहाबाद


अपने शहर इलाहाबाद में काफी अंतराल के बाद मुझे कुछ दिन वहाँ रुकने का सौभाग्य मिला। इसी शहर में मै पला और बढ़ा। सन अट्ठासी से मेरा शहर लगभग छूट गया। फिर भी साल में दो-चार चक्कर तो लग ही जाते। पर लम्बा रुकना सम्भव ना हो सका था। बार- बार आने से ये तो था कि मोहल्ले के चाचाओं-चाचियों और भतीजे-भतीजियों ने पहचानना नहीं छोड़ा था। सब भले नाम से न जानते हों पर ये ज़रूर जानते थे कि यही वर्मा जी के सुपुत्र हैं, ये बात अलग है कि असलियत तो सिर्फ पिता जी ही जानते होंगे। जवानी में जो बेटा माँ-बाप की आँखों का तारा हुआ करता है वही बुढ़ापा आते-आते प्रायः मोतियाबिंदु में तब्दील हो जाता है। हर वृद्ध को दूसरे के बेटा-बहू बहुत सुशील नज़र आने लगते हैं। लायक या नालायक होने का सर्टिफिकेट तो माँ-बाप की आत्मा में छिपा रहता है। पर वो ये राज़ किसी से शेयर नहीं करते और कोई इस राज़ को कभी जान भी नहीं पाता। 

चिपको आन्दोलन में किसी ने वृक्षों को इतना कस के पकड़ा होता तो निश्चय ही पेड़ की छाल के अक्स उसके शरीर पर उभर आते। लड़की ने लडके को इस कदर अपनी बाँहों में भींच रक्खा था। ऐसा लग रहा था कि जरा पकड़ ढीली हुयी तो लड़का बाइक समेत उसे छोड़ के कहीं भाग ना जाये। चिपकने में अड़चन निगोड़ी हेलमेट मोटरसाइकिल के हैंडल की शोभा बढ़ा रहा था। जिस स्पीड पर वो चल रहे थे उस पर लड़की का भाई तो सर फोड़ सकता था किन्तु एक्सीडेंट से सर फूटने की कतई गुंजाईश नहीं थी। बाइक की स्पीड जितनी सम्भव थी उतनी कम थी, सड़क के उस सुनसान क्षेत्र में। भाई भी भाईचारा तभी दिखा पाता जब वो उन्हें पहचान पाता। लडके ने मुँह रुमाल के तिकोने से ढँक रक्खा था और लड़की की तो सिर्फ आँखे ही दिख रही थीं। सर और शक्ल दोनों दुपट्टे से ढँके हुए थे। दुपट्टे का ऐसा मल्टीपरपज़ यूज़ तो इसके इज़ादकर्ता ने सपने में भी नहीं सोचा होगा। 

जब से १८ सेकेण्ड से ज्यादा किसी को देखना घूरने जैसे जघन्य अपराध की श्रेणी में आ गया है मै अपनी श्रीमती जी को भी घर के बाहर कपड़ों से पहचानना ही पसंद करता हूँ। वैसे मै केजरीवाल जी से इस कानून को तोड़ने के लिए आह्वाहन करूँगा। भाई ये नियम बहुत गलत है। लड़कों के लिए ये सिद्ध कर पाना अत्यंत कठिन है कि कोई लड़की उसे घूर रही थी। जबकि हर लड़की ये मान के चलती है कि हर वक्त कोई न कोई उसे घूरने पर आमादा है। ये बात अलग है कि वो घर से बिना ढंग से ड्रेसअप और मेकअप के बाहर नहीं निकलतीं। अगर किसी की ये हार्दिक इच्छा है कि कोई उसे न देखे तो फिर इस ड्रेसिंग सेन्स की कौन तारीफ करेगा। मै तो अपनी टूटी चप्पल और फटी बनियान के साथ एट लीस्ट मोहल्ले में तो बिना संकोच घूम ही लेता हूँ। इस अति-स्त्रीवादी कानून की जितनी भी मुखालफत हो कम ही है। लड़कियाँ तो ये मानती हैं कि लड़कों में घूरने लायक कोई चीज़ है ही नहीं भले ही हृतिक रोशन सामने बैठा हो। ये बात अलग है कि वो मोहल्ले के हर लुच्चे-लफंगे को भली-भाँति पहचानतीं हैं। और शरीफ पढ़ाकू टाइप के लड़कों (जो १८ सेकेण्ड से कम घूरता हो) को मग्घू की श्रेणी में रखतीं हैं। इस कानून को तोड़ने के लिए मै केजरीवाल साहब के साथ जेल भरो आंदोलन तक में भाग लेने को भी तत्पर हूँ। सभी स्त्री-पुरुषों से जो भी इस कानून के खिलाफ हों उनका भी मै आह्वाहन करता हूँ। मुझे पूरी उम्मीद ही नहीं विश्वास है जिस देश में गे संस्कृति के संरक्षण के लिए इतने मुखर स्वर उठे हैं वहाँ मेरी इस विचारधारा से सहमत लोगों की कमी न होगी। 


मेरी धर्मपत्नी निकट के पार्क केशव वाटिका में अक्सर टहलने निकल जातीं थीं। इस अतिवादी कानून के तहत मै उन्हें उनके घर से निकलते समय पहने कपड़ों के द्वारा पहचान लिया करता था। एक बार तो हद ही हो गयी। वो जब निकलीं तो मैंने उन्हें नया सूट पहन के निकलते नहीं देखा। तय था कि वाटिका में उन्हें पहचान नहीं पाया। अब देवी जी बुरा मान गयीं कि मेरे नए सूट की तुमने तारीफ नहीं की। जब मैंने बताया कि मै पराये धन और परायी नारी की ओर नहीं देखता तो उन्हें और बुरा लग गया। बोलीं ये नया सूट सिर्फ तुम्हारे देखने के लिए थोड़ी न सिलवाया है। एक जुमला और जड़ दिया कि सब मर्द एक से होते हैं अपनी बीवी को छोड़ दूसरों की बीवियों पर ज्यादा ध्यान देते हैं। मैंने बताया कि देवी एक ऐसा कानून है जो हमें घूरने से रोकता है। अगर कोई १८ सेकेण्ड में पहचान आ गया तो भाभी जी या बहन जी नमस्ते कर के निकल लेता हूँ। पर पत्नी जी को मेरी बात पर भरोसा नहीं हुआ। लेकिन मेरे मन में एक शक़ ज़रूर घुस गया कि इन्होने बिना घूरे मुझे कैसे पहचान लिया।

मोहल्ले भर का अंकल बन जाने के बाद अपने और पराये बच्चों में ज्यादा फर्क नहीं लगता। ज़माना बदल गया है। हम भी इस तरह के चिपकू युगलों को देखने के अभ्यस्त हो चले हैं। पर मोहल्ले में इस तरह घूमते इस चिपकू युगल पर थोड़ी देर के लिए ध्यान चला ही गया। अनजाने में १८ नहीं तो १५ सेकेण्ड तो घूर ही लिया होगा।  पर क्या खाक पहचान पाता, शक्लें तो नक़ाब से आच्छादित थीं। हाँ मोटरसाइकिल की नंबर प्लेट पर यूनिक तरीके से लिखे "ॐ साईं राम" को देख ये अंदाज़ लग गया कि हो न हो ये दो मकान छोड़ के रहने वाले शर्मा जी की ही गाड़ी है। कुछ देर बाद मैंने मुड़ के देखा तो मेन रोड आने से पहले कोने के हनुमान मन्दिर के सामने दोनों चलती मोटरसाइकिल पर हनुमान जी के समक्ष श्रद्धावनत प्रतीत हुये। मेरा मन भी इन बच्चों में व्याप्त संस्कार की गहरी जड़ों को देख कर श्रद्धा से झुक गया। वो चाहते तो खुले आम घूम सकते थे। मुँह खोल के चिपके हुये घूम कर वे मुझे शर्मिंदा नहीं करना चाहते थे। समाज ने कितनी भी उन्नति कर ली हो किन्तु लाज-शर्म भी कोई चीज़ है। बड़े-बूढ़ों का लिहाज और भगवान के प्रति आस्था यही तो संस्कार हैं। 

ऐसा नहीं है कि हमारे ज़माने में प्यार नहीं होता था। लेकिन छुप-छिपा के नहीं। चेहरा ढँकने का रिवाज़ नहीं था। अगर किसी ने किसी को सेट कर लिया तो पूरा कालेज जान जाता था। यहाँ तक कि प्रोफेसर भी। लड़की को लडके के दोस्तों से वैसा ही सम्मान मिलता था जैसे भाभी को। और सारे प्रतिद्वन्दी बेवजह मामा टाइप की कैटेगरी में शामिल हो जाते। प्रेम के जग जाहिर हो जाने के कारण युगल पर एक दूसरे का साथ निभाने के लिये सामाजिक दबाव भी पड़ता था। पर इस घटना ने मुझे ये सोचने पर विवश कर दिया कि जिन बच्चों को मंदिर दिखाई दे सकता है उन्हें मै क्यों नहीं दिखायी दिया। पहली बार एक अस्तित्वविहीनता का एहसास मेरे दिल-ओ-दिमाग़ पर छा गया। लगा जैसे मै उस बियाबान सड़क पर कहीं एक्सिस्ट ही नहीं करता। बच्चों ने मेरे अस्तित्व को सिरे से नकार दिया था। मुझे कन्फ्यूज़न सा होने लगा कि योग-साधना से सम्भव है मुझमें अदृश्य होने की कोई दैवी शक्ति आ गयी है।


मै आगे बढ़ा तो सामने से एक चाचा जी चले आ रहे थे। मैंने उन्हें हाथ जोड़ के प्रणाम किया। कंधे पर सब्जी का झोला लटकाये वो अपनी ही धुन में थे। सम्भव है बुजुर्गवार ने मुझे न पहचाना हो। अगर रुक कर पूरा परिचय देता तो शायद पहचान भी लेते। पर नमस्ते का जवाब तो बनता ही था। सड़क के दूसरे छोर से एक भतीजे ने प्रवेश किया। अब मुझे उम्मीद जगी कि अपने शहर में मुझे कोई जानने वाला जरुर पहचान लेगा। पर ये क्या भतीजा तो कान में हेड फोन लगाये और आखें आई पॉड पर गड़ाये चला आ रहा था। अब मेरा सब्र जवाब दे रहा था मैंने हौले से आवाज़ लगायी रवि। उसने मेरी ओर निगाह जरुर की पर ऐसा लगा जैसे वो मेरे आर-पार देख रहा हो, सी-थ्रू। मेरा अदृश्यता का कॉन्सेप्ट कन्फर्म होता लग रहा था। एक्टिवा पर सवार एक भतीजी ने भी उसी समय एंट्री मारी। खाली सड़क पर मुझे न देख पाना असम्भव था। किन्तु मुझे देख कर भी न उसके चेहरे की संरचना में कोई परिवर्तन आया न ही एक्टिवा की स्पीड में। ऐज़ यूज़ुअल उसके कानों से भी तार लटक रहे थे। आँखों पर चढ़े सनग्लास आपको ये इम्युनिटी दे देते हैं कि आप जिसे चाहें उसे देखें जिसे चाहें उसे न देखें। अब मुझे मज़रूह साहब वाला दर्द कुछ-कुछ समझ आ रहा था। 


गलियां हैं अपने देस की,
फिर भी हैं जैसे अजनबी, 
किसको कहे कोई, अपना यहाँ। 


लेकिन एक बात की ख़ुशी भी थी कि अपने ही मोहल्ले में मै अजनबी की तरह घूम सकता हूँ। मुझे न तो कोई देख सकता है न पहचान। कम से कम जान पहचान वाले तो बिलकुल नहीं। हर किसी के जीवन में ये कल्पना ज़रूर होती है कि यदि मै अदृश्य हो जाऊँ तो क्या-क्या करूँगा। इस विषय पर कई इंग्लिश और हिंदी फ़िल्में बन चुकीं हैं। इस खुशफहमी को पाले मै मोहल्ले के मेन चौराहे तक आ गया। यहाँ अब पूरा मार्किट सा बन गया था। जब मैंने इलाहाबाद छोड़ा था तब यहाँ सन्नाटा हुआ करता तब से अब तक मोहल्ले की चल-अचल जनसँख्या में भी वृद्धि हुयी है और ये चौराहा तो पूरा बिज़नेस सेंटर में बदल चुका का है। मुझे उम्मीद थी कि यदि चचा, भतीजे और भतीजी सुनसान गली में मेरे अस्तित्व को नकार सकते हैं वे इस चहल-पहल वाले इलाके में मुझे क्या देख पायेंगे।


अदृश्यता का हर कोई लाभ उठाना चाहता है। मैंने एक बंद पड़ी दुकान के सामने अपनी फेवरेट ब्रांड भूरी लम्बी चान्सलर सुलगा ली। तभी ऐसा लगा कि उसका धुआँ मेरे शरीर पर चिपक गया है। सब्जी वाले चाचा छंटाक भर जीरा लेने के लिए पंसारी की दुकान पर खड़े थे और मेरी ओर घूर रहे थे। उनकी दृष्टि ये कूट-कूट के कह रही थी कि वर्मा जी ने अपने लड़के को यही संस्कार दिए हैं कि बड़े-बूढ़ों के सामने धुएँ के छल्ले निकाले। मुंह लपेटे मोटरसाइकिल वाले भतीजे-भतीजी भी आते दिखे। बिना अपनी आइडेंटिटी डिस्क्लोज़ किये उन्होंने उसी श्रद्धा से प्रणाम किया जैसे कुछ देर पूर्व हनुमान जी को करते दिखे थे। एक्टिवा वाली भतीजी भी उतने ही वेग से वापस आती दिखाई दी उसने नमस्ते तो नहीं की पर एक्टिवा की स्पीड पर एकाएक ब्रेक लग गया। पलट कर देखा ये वही अंकल हैं जो शरीफ से दिखते थे। 

मुझे लगा मि इंडिया अब लाल लाइट में सभी को दिखायी दे रहा है या मि एक्स इन बॉम्बे के किशोर कुमार पर दवाई का असर ख़त्म हो गया है।

- वाणभट्ट

शनिवार, 15 मार्च 2014

पिता की घोषणा

पिता की घोषणा 

समस्त मानवीय सम्वेदनाओं में लिपटा
संशयों से घिरा
प्रवृत्तियों में जकड़ा   
मै। 

सम्पूर्ण सत्यनिष्ठा के साथ 
स्वयं को 
यह कह सकने में असमर्थ पाता हूँ 
कि 
भगवान हूँ
मात्र इसलिये 
कि 
मै पिता हूँ।  

जन्म के समय 
देखा है मैंने  
प्रभु का अंश 
साक्षात तुझमें। 

यदि सम्भव हो 
तो क्षमा करना  
कि 
पूर्वाग्रहों से ग्रसित 
मैंने प्रयास किया 
भगवान को
इन्सान बनाने का। 

- वाणभट्ट 


रविवार, 9 मार्च 2014

सहअस्तित्व

सहअस्तित्व 

जीवन है
किसी भी तरह की
मुक्ति के विरुद्ध

इस काल्पनिक लालसा ने
कर दिया चिंतन 
अवरुद्ध

हर कोई चाहता है मुक्ति
बंधन से मुक्ति
उत्तरदायित्वों से मुक्ति

पर क्या सम्भव है जीवन
बिन
बन्धन

सहअस्तित्व है आधार जीवन का 
सामंजस्य है विपरीत ध्रुवों का

द्वैत
ही तो है
सर्वत्र व्याप्त

तप्त सूर्य और शीतल धरा
चुम्बक का उत्तरी-दक्षिणी सिरा
धनावेश-ऋणावेश
सकारात्मक-नकारात्मक
परमाणु का इलेक्ट्रॉन-प्रोटॉन
सभी पदार्थ में है अणुओं का बंधन
अलग है फ्री रेडिकल्स की कथा
अल्पायु है,
चिपक लिया यदि कोई खाली मिला

सन्यासी ने जाते हुये 
न देखा मुड़ के
सन्यास भी मिलता है
किसी अज्ञात से जुड़ के

अद्वैत है
तो द्वैत भी है
दो है तभी अलग हैं
तभी जुड़ेंगे
अद्वैत बनेगा   

अकेले को सदैव खोज रहेगी
जो केवल मिल के ही पूरी होगी

विपरीत में है नैसर्गिक सामंजस्य
एक-दूसरे के पूरक
सबकी प्रकृति है पृथक
फिर क्यूँ भटकते हैं मुक्ति के लिए
जो बँट रही है अनायास
और
मिल जाती है बिन प्रयास

दृष्टि न कर सकेगी श्रवण
स्वाद-सुगंध के लिए हैं भिन्न अंग
सहअस्तित्व के लिये नहीं आवश्यक युद्ध-वृत्ति
गढ़ रक्खी है प्रकृति ने,
सहज प्रवृत्ति

सामाजिक विषमताओं 
और 
अधिकार के लिये
तो युद्ध होना चाहिये
पर श्रेष्ठता को मापना
अब बंद होना चाहिये

मुक्ति में नहीं है जीवन
किन्तु
बंधन से ही मुक्ति है सम्भव

दूसरे के बिना पूरक,
आधा और एकाकी है, 
है ना!!! 

- वाणभट्ट
 

गुरुवार, 6 मार्च 2014

दंश

दंश 

नारी 
जब माँ बनती है 
तो बड़े गर्व से कहती है 
मैंने बेटा जना

जनखों की 
बलैयों पे
देती है सब लुटा 

कभी  
अंदर गहरे 
उतर जाती है 
ये विडम्बना 

पर माँ खुश है 
कि  
नारी होने का दंश
जो  
इस देश में उसने भोगा 
उसकी संतति को 
न भोगना होगा

- वाणभट्ट


संस्कार

संस्कार शब्द जब भी कान में पड़ता है तो हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान का ही ख़्याल आता है. भारत में विशेष रूप से हिन्दुओं के संदर्भ में संस्कार का ...