गुरुवार, 29 मई 2014

पुरवा बयार

पुरवा बयार

शर्मा जी की उम्र पचास के अल्ले-पल्ले रही होगी। मोहल्ले के इको पार्क वॉकर्स क्लब के संस्थापक सदस्य। बहुत ही नियमित।  बहुत ही जिंदादिल। मँहगे हेयर डाई से बालों को रंग के अपनी उम्र के आधे ही जान पड़ते। मुझे मिला कर कुल जमा दस लोगों को अपनी प्रेरणा से जोड़ रक्खा था। ट्रैक पर टहलने के बाद सभी मिल के योग (योगा) करते फिर लाफ्टर सेशन शुरू होता। पूरा एक घंटे का पैकेज है। पार्क में आना उतना ही अनिवार्य है जितना दफ्तर जाना। अटेंडेंस रजिस्टर तो नहीं था पर न आना बहुत मंहगा पड़ता। एक दिन भी कोई चूक गया तो तय है कि पेनल्टी के रूप में उसके घर सब चाय पीने जायेंगे। और कोई शरीफ आदमी सिर्फ चाय तो पिलाएगा नहीं कुछ खिलायेगा भी। ये दो तरफ़ा टैक्टिस बहुत कारगर रही। पार्क नहीं आये तो दोस्त हाल लेने घर पहुँच जायेंगे। और जिस बीवी को सुबह-सुबह बिस्तर से उठ कर चाय बनानी पड़ेगी, वो अगले दिन खुद अलार्म लगा के उठेगी और आपको ठीक समय पर घर के बाहर कर देगी। इस तरह हमारा क्लब कई वर्षों से फल-फूल रहा है। शर्मा जी शारीरिक रूप से बिलकुल स्वस्थ थे और मानसिक रूप से और भी ज्यादा। देखने में पचीस के लगते पर दिल बीस का ही था। लाफ्टर सेशन के लिए अलग से तैयारी करके आते थे। अपने क्रैकिंग जोक्स से सबका जीना मुहाल कर देते। हमेशा हंसने-हंसाने को तत्पर रहते।

जाड़ा-गर्मी-बरसात शर्मा जी को हमने कभी पार्क में नदारद नहीं पाया। लिहाजा हमें उनके घर कभी चाय पीने का सौभाग्य नहीं मिला। नमक मिर्च के साथ बताने वाले बताते हैं कि शर्मा जी ने लव मैरिज की थी। और उनकी पत्नी, यानि हमारी भाभी जी, अपने दिनों में अनिन्द्य सुंदरी हुआ करतीं थीं। अफसर से शादी के बाद नियमित खान-पान से इंशा-अल्ला उनका स्वास्थ्य आवश्यकता से अधिक भरा-पूरा हो गया था। उम्र का असर शर्मा जी की ही तरह उन पर भी हावी नहीं हुआ था। आदमी वही जवान है जो उम्र को मानसिक रूप से दरकिनार कर दे। लिहाजा उन्हें हर आने-जाने वाले पर शक़ रहता कि उसके इरादे गलत हैं। और शर्मा जी के टहलने वाले दोस्तों पर तो उन्हें कतई विश्वास नहीं था। टहलने वाले सर्किल का तो स्टेटस भी नहीं पता। अफसर है, क्लर्क है या चपरासी। शर्मा जी की नियमितता का शायद ये भी एक कारण रहा हो। शर्मा जी तन-मन दोनों से जवान थे, जबकि उनकी पत्नी मन से पूर्णतः युवा। उनसे मिलने की सभी की इच्छा मन ही मन बनी रहती पर शर्मा भूले से भी किसी को अपने घर आने का न्योता न देता। 

चाय की पेनल्टी से बचने का एक मात्र तरीका था - मास बंक। किस किस के घर जा पाएंगे शर्मा जी। ये भी हो सकता है कि हमारे बीच का कोई जासूस शर्मा जी को मास बंक की खबर कर देता हो और वो भी छुट्टी मार लेते हों। कुछ लोगों ने सन्डे ऑफ़ का सिस्टम बना रक्खा था। उन्हें सन्डे एग्जम्प्टेड था। पर आज सन्डे नहीं था। न ही कोई मास बंक का फरमान था। मै यथा समय ठीक साढ़े पांच बजे उद्यान में था। पार्क में मेरे अलावा सिर्फ शर्मा जी ही पहुँच पाये थे। बाकी सबने गच्चा दे दिया। पहले से बता दिया होता तो मै भी फरलो मार लेता। ये भाईसाहब अमूमन सबसे जल्दी आ जाया करते थे। इस समय टहलने के बाद प्राणायाम में लगे हुए थे। मेरे पार्क में एंट्री लेते ही उन्होंने धीमे स्वर में हरि-ओम की आवाज़ लगाई। उनकी आवाज़ से गर्मजोशी गायब थी।

मुझे शक हुआ कि हो न हो कुछ गड़बड़ है। लगता है शर्मा जी की तबियत ठीक नहीं है। मुझे लगा उन्हें आत्मीयता की ज़रूरत है। पार्क में कोई अन्य मित्र दिख भी नहीं रहा था। सो टहलने का कार्यक्रम स्थगित करके मैंने पूरी गर्मजोशी से पूछा - शर्मा क्या बात है, बड़े बुझे-बुझे से लग रहे हो। वो एक ठंडी आह भर के चुप लगा गये। थोड़ा और कुरेदा तो बोले कुछ नहीं यार जब पुरवा हवा चलती है तो पूरे बदन में हल्का-हल्का दर्द रहता है। पुरानी चोटें फिर से हरी हो जातीं हैं। एक सिसकारी के साथ वो फिर चुप हो गए। उनका ध्यान आज प्राणायाम में नहीं लग रहा था। मुझे लगा राख में कहीं अंगार छिपा है। बोला - पुरवा तो सबके लिये है। हाँ थोड़ा आलस्य ज़रूर लगता है शायद इसीलिए आज अनुपस्थिति ज़्यादा है। पर घर के अंदर एसी में सोने वालों पर भला पुरवा क्या असर करेगी। आपको कौन सी चोट लग गयी शर्मा जी। शर्मा जी मेरे अतिक्रमण पर थोड़ा बुरा सा मान गये। लेकिन बड़ी शराफत से बोले वर्मा जी आज चलता हूँ, कल मिलूंगा। और वो बिना हँसे-हँसाये, मेरे अंदर जिज्ञासा का तूफ़ान खड़ा करके पार्क से निकल लिये। जिसका शीघ्र निवारण होना ज़रूरी था। लिखने वाले को तो बस लिखने का मसाला चाहिये। कोई सुख में हो या दुःख में लेखक अगर अपने स्वार्थ से उबर जाए तो कितनी ही कहानियां अनकही रह जाएँ।  

शर्मा जी के एक पुराने मित्र जो हमारे वॉकर क्लब के सदस्य भी थे वही मेरी शंका का समाधान कर सकते थे। रास्ता थोड़ा लम्बा था पर आज टहलना भी तो नहीं हुआ था। मिश्रा जी ने सोचा आज वर्मा जी अकेले ही पेनल्टी वसूल करने कैसे आ गये। जब हम ड्राइंग रूम में चाय का इंतज़ार कर रहे थे, मैं अपनी जिज्ञासा पर ज़्यादा संयम न रख सका। तुरंत मुद्दे पर आ गया। यार शर्मा आज बड़ा सेंटी सा लग रहा था कह रहा था पुरवा हवा चलती है तो बदन टूटता है। मिश्रा थोड़ा संजीदा हो गया फिर बोला यार मै शर्मा को बचपन से जानता हूँ। शुरू से ही बहुत ही हृष्ट-पुष्ट सुन्दर और स्मार्ट बंदा है। कालेज के दौरान इसे इश्क का रोग लग गया। जिस लड़की से लगा वो इससे भी ज्यादा सुन्दर थी लेकिन इसे घास भी नहीं डालती थी। उसकी अपनी सीमाएं थीं जात-बिरादरी की। भाईसाहब उसकी राह में मारे-मारे फिरा करते। जाति और सम्प्रदाय के हिसाब से तो दोनों में जो अंतर था वो शायद पट भी जाता पर स्टेटस का फ़र्क पाटने के लिये लड़की वाले राजी नहीं थे। लिहाज़ा एक दिन इनको बुरी तरह पीट-पाट के रेलवे ट्रैक पर डाल आये। किस्मत अच्छी थी जो किसी की नज़र पड़ गयी और ये बच गये। कालान्तर में शर्मा जी एलआईसी में अफसर बने और उसी लड़की ने घर से भाग कर इनसे शादी की। घर-समाज सबने लड़की का बहिष्कार कर दिया। शर्मा जी ने भी अपने-पराये सबसे जम के मोर्चा लिया। इसीलिए शर्मा के घर बाहरी लोगों का आना-जाना कम है और घर वाला तो न कोई इनका है न उनका। लोग इनके बारे में न जाने क्या-क्या कयास लगाया करते हैं। पर इन दोनों की दुनिया अलग है जिसमें ये मग्न रहते हैं। वॉकर्स ग्रुप और ऑफिस यही शर्मा का बाह्य दुनिया से संपर्क है। मेरा तो घर का आना जाना है। कभी तुम्हें शर्मा के यहाँ चाय पिलवाता हूँ। इसकी बीवी बहुत ही ज़हीन  है। दोनों में गज़ब का सामंजस्य है। इन्होने शादी तो की लेकिन आज तक ये लोग अपने-अपने धर्म पर कायम हैं। 

हमारी चाय आ गयी थी। पुरवा हवा की जो तफ्तीश मुझे मिश्रा के यहाँ तक खींच लायी थी। वो पूरी हुयी। भिन्न धर्मों के लोग एक-दूसरे के धर्म का आदर करें, यही धर्म है। मेरा अपना मानना है धर्म के अलावा जो कुछ भी है वो अधर्म है। मजहब-पूजा पद्यति कितनी भी अलग हो लेकिन धर्म तो धर्म ही रहेगा। सर्वधर्म-समभाव सिर्फ नारे की चीज़ नहीं है। शर्मा दम्पति इसका एक जीवंत उदाहरण हैं। उनके प्रति आदर का उदगार है मेरा ये लेख। प्रभु हमारे देश वासियों को ऐसी ही सन्मति प्रदान करे। 

बाहर पुरवा अपने उफान पर थी। मेरे लिए ये ताज़ी बयार का झोंका था।      

- वाणभट्ट 

सोमवार, 26 मई 2014

जीनोटाइप

जीनोटाइप

सत्य आधार जी सभा अध्यक्ष की कुर्सी पर पूरे ठसके के साथ विराजमान थे।

कुछ लोग कभी रिटायर नहीं होते। वे अपने कार्यकाल में इतने महान कार्य सम्पादित कर चुके होते हैं कि उनका जाना एक निर्वात खड़ा कर देता है। और इस खाली जगह को भरने के लिए उनके समतुल्य किसी व्यक्ति को खोज पाना वर्तमान शासकों के लिये निकट भविष्य में संभव नहीं हो पाता। लिहाज़ा ऐसे महान सेवकों को सेवाकाल में विस्तार से नवाज़ा जाता है। यदि सेवा विस्तार नहीं मिला तो तमाम परामर्श समितियों में साहब के समायोजन की पर्याप्त संभावनाएं होतीं हैं। कुछ नहीं तो उनके वैचारिक निवेश का सम्बल अगली पीढ़ी को मिलता रहेगा। यदि आपने अवकाश प्राप्त करने से पहले अपने पोस्ट रिटायरमेंट असाइनमेंट का जुगाड़ नहीं कर लिया तो आपकी अब तक की हुयी जोड़-तोड़ से अर्जित सभी उपलब्धियां व्यर्थ गयीं। नौकरी में रहते हुये जिसने भविष्य के उभरते सितारों के मेन्टॉर बन कर उनका मूल्य-सम्वर्धन कर दिया हो, उसका रिटायर हो जाना कतिपय असंभव है। आपके कार्यकाल के दौरान आपकी असीम अनुकम्पा से योग्यता और अयोग्यता के बावज़ूद जो आगे पदोन्नत होते चले गए, उनके लिए ऋण से उऋण होने का समय है आपका रिटायरमेंट। क्योंकि सिर्फ योग्यता के बल पर यदि कोई आशान्वित है कि वो परम पद प्राप्त करेगा तो वो अवश्य दिवा स्वप्न दोष विकार से पीड़ित होगा। ऋण से उऋण होने का तरीका है किसी प्रकार उनकी आवश्यकता को बनाये रखिये।   

ये सामाजिक प्रगति का ही लक्षण है कि व्यक्ति वानप्रस्थी की आयु में भी गृहस्थ आश्रम के आनन्द  छोड़ना नहीं चाहता। शिलाजीत और पुष्टिवर्धक औषधियों की कम्पनियाँ इन्हीं के भरोसे चल रहीं हैं। संन्यास की तो बात अब बेमानी हो गयी लगती है। चिकित्सा के क्षेत्र में हुए आविष्कार ये सुनिश्चित करते हैं कि जब तक गाँठ में पैसे हैं या जब तक आप न चाहें, धरती का बोझ कम होने से रहा। और कर्मयोगी मनुष्य के साथ दिक्कत ये है कि वो कर्म नहीं करेगा तो जीते जी मर जायेगा। इसलिए ऐसे कर्मयोगियों को अगर देश ने नहीं पहचाना तो ये अपना एनजीओ बना लेंगे। और एनजीओ को मिलने वाली सरकारी-गैरसरकारी अनुदान राशि से देश सेवा करते रहेंगे। जब तक साँसें है कोई ज़िन्दगी को झुठला नहीं सकता।  दिल का धड़कना भी ज़रूरी है। धड़कते दिल में कई स्टंट दफ़न हों तो भी चलेगा। क्योंकि चलती का नाम है गाड़ी। दिमाग जो साठ साल में ही सठियाने लगता है, उस पर प्रश्न करना देश के उदीयमान भविष्य पर प्रश्न चिन्ह खड़ा कर सकता है। ज़िन्दगी है तो सपने भी होंगे। शरीर शिथिल पड़ सकता है पर सपने नहीं। शिथिल शरीर के लिये पुरखों की जड़ी-बूटियां हैं, तेल-मालिश है। रहे सपने तो, दूसरों के खर्च पर हवाई यात्रायें और अतिथिगृहों में मिलने वाली सुविधाएँ आपको सदैव सपने देखने के लिए प्रेरित करतीं रहेंगी। सो जो-जो पुनीत कार्य आपसे अपने उत्पादक कार्य काल में छूट गए हों उन्हें करवाने के लिये यही सबसे मुफीद समय है। क्योंकि अब आपको सिर्फ ज़ुबान हिलानी है और शरीर किसी और को।     

सत्य आधार जी की आँखों में गाम्भीर्य झलक रहा था। और चेहरे पर अद्भुत ओज उनके द्वारा अर्जित उपलब्धियों का सहज बखान कर रहा था। समिति के अन्य सदस्य भी उन्हीं की तरह या तो अवकाश प्राप्त थे या उसी कगार पर पैर लटकाये बैठे थे। अपने अध्यक्षीय भाषण में साहब ने बताया कि किस प्रकार वो देश को अन्न की समस्या और कुपोषण से निजात दिलाना चाहते हैं। इसके लिये दूसरों को क्या-क्या कदम उठाने चाहिये और नयी पीढ़ी को क्या क्या करना चाहिये। किस प्रकार विकसित प्रजातियों और तकनीकों  प्रयोग करके फसलों का उत्पादन और उनकी उत्पादकता को बढ़ाया जा सकता है। उनके विचार, उनकी पावन जिव्हा से धारा-प्रवाह फूट रहे थे। 

उनके भाषण का लब्बोलबाब कुछ इस प्रकार था। भारत कृषि प्रधान देश रहा है और रहेगा। कृषि भारत की अर्थव्यवस्था में लगभग १५% का योगदान करता है और ५०% जनसँख्या को रोजगार मुहैया करता है। आज आवश्यकता है तो इसे उद्योग की तरह अपनाने की है।आज बहुत सी उन्नत प्रजातियां हमारे प्रजनक लोगों ने विकसित कर दीं हैं। आवश्यकता है तो उनके प्रचार-प्रसार की। किसानों को उन्नत प्रजातियाँ अपनाने की। हम अभी भी औद्योगिक खेती से बहुत दूर हैं। थोड़ा आउट ऑफ़ बॉक्स थिंकिंग हो तो तो कृषि का उत्पादन दुगना करना ज्यादा कठिन नहीं है। यदि कृषि कार्यों में हुए मशीनीकरण को वृहद रूप से अपनाया जाए तो लागत मूल्य कम किया जा सकता है। कम समय में ज्यादा काम हो सकता है। पानी का समुचित प्रबंधन होना चाहिये। इसके लिए ड्रिप या स्प्रिंकलर्स का प्रयोग किया जा सकता है। बुआई से लेकर कटाई तक यदि सभी शस्य क्रियाओं के लिये आधुनिक यंत्रों का प्रयोग करें तो उसी भूमि से अधिक उत्पादन ले सकते हैं। फिर करीब १५-२०% उत्पादित अन्न उचित रख-रखाव और प्रसंस्करण के आभाव में खराब हो जाता है और खाने योग्य नहीं रह जाता।इसके लिए आवश्यक है उचित प्रबंधन। उचित प्रबंधन के द्वारा हम न सिर्फ अधिक अन्न का उत्पादन कर सकते हैं अपितु बल्कि उनका संरक्षण भी कर सकते हैं। आज हमारे पास ऐसी प्रजातियां हैं जो गर्मी झेल सकतीं हैं। एक्सट्रीम कोल्ड में भी सर्वाइव कर सकतीं हैं। ये रेनफेड एरियाज में कम पानी की स्थिति में भी संतोषजनक उत्पादन देतीं  हैं। वी मस्ट थिंक आउट ऑफ़ बॉक्स। थिस इज़ हाई टाइम। इसके लिए देश के इंजीनियरों और मैनेजरों को कृषि क्षेत्र में अपनी सहभागिता बढ़ानी चाहिये। माना कि कृषि में पैसा कम है किन्तु अपने देश और देश की बढ़ती जनसँख्या के लिये प्रोफेशनल्स को आगे आना ही होगा। इत्यादि-इत्यादि।  

बहुत ही ओजपूर्ण था सत्य आधार जी का भाषण। हमारे सिस्टम के हिट और फिट लोगों की एक खासियत है वो कभी उद्वेलित नहीं होते। उन्हें किसी कार्य के लिये प्रेरित करने के लिए वित्तीय प्रावधान का खुलासा करना आवश्यक है। अन्यथा उनके दोनों कान खुले रहते हैं। बड़े-बड़े देश सेवा के लिये उनको प्रेरित नहीं कर सके, तो सत्य आधार जी की भला क्या बिसात। लेकिन उनके हाव-भाव से ऐसा लगता मानो वे इस ओज पूर्ण भाषण को सुनने मात्र से कल से ही देश-सेवा में जुटने वाले हैं। कल से इसलिए कि कल किसने देखा है। ये लोग सभाओं में अपने विचार देने की अपेक्षा बंद कमरों में बॉस के समक्ष अपने उदगार व्यक्त करते हैं। इससे दो फायदे हैं। एक तो बॉस का समय, जो कट नहीं रहा होता है, कट जाता है। और दूसरा बॉस को ये ग़लतफ़हमी बनी रहती है कि यही मेरा वफादार चेला है। बॉस अगर फायदा न भी करे तो कम से कम नुक्सान तो नहीं करेगा। वफ़ादारी चीज़ ही ऐसी है जो दोनों तरफ से निभायी जानी चाहिये। ऐसा सिस्टम के ज्ञानियों और ध्यानियों का मानना है। 

सभा में इंजिनियर शर्मा भी बैठा था। उनकी उम्र अभी-अभी ऐसी गहन सभाओं में बैठने की हुयी थी। भाषण सुन कर उद्वेलित हो गया। इस देश के इंजीनियरों को ये ग़लतफ़हमी अक्सर हो जाती है कि सिर्फ वो ही आउट ऑफ़ बॉक्स प्राग्मेटिक सोलूशन्स सोच सकते हैं। जबकि शासन उनका उपयोग सिर्फ जिम्मेदारी फिक्स करने में करता है। फाइलों पर मलाई अफसर और उनका मुंह लगा बीए फेल बाबू खाये, जिम्मेदारी अभियंता की। बड़ी नाइंसाफी है। शर्मा ने कुछ बोलने के लिये हाथ खड़ा कर दिया। सभा में उपस्थित विद्वतजनों ने उसे घूर कर देखा। पर बेचारा देश के प्रति अपने कर्तव्यबोध के कीड़े के प्रभाव से उस क्षण ग्रसित हो गया लगता था। बोला सर मै कुछ कहना चाहता हूँ। चूँकि मामला आउट ऑफ़ बॉक्स और युवाओं का था, सत्य आधार जी को आज्ञा देनी पड़ी। बाकि सब बकरे की खैर मनाने में लग गये। उन्हें मालूम था कि सत्य आधार जी को सुनाने की आदत है, सुनने की नहीं। 

अपने अंध जोश से भरपूर शर्मा ने कहना शुरू कर दिया। सर मै मानता हूँ कि कृषि उद्योग नहीं है किन्तु इसने कितने ही उद्योगों को संरक्षण और पश्रय दे रक्खा है। बीज, कीटनाशक, खर-पतवारनाशक, कृषि यंत्र, भण्डारण, प्रसंस्करण सभी क्षेत्रों में अनेकों राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सक्रिय भागीदारी है। ये सभी कम्पनियाँ दिन-दूनी रात चौगनी तरक्की कर रही हैं। इनका ग्राहक या तो किसान है या आम उपभोक्ता। जबकि कृषि अपने आप में एक हानिकारक व्यवसाय बनता जा रहा है। एक ही कृषि क्षेत्र के लिए अनेक प्रजातियों के बीज संस्तुत हैं। बीज बनाने का काम कम्पनियाँ कर रहीं हैं, जिनके लिए किसान एक ग्राहक है और वो इनसे अपने उत्पाद का अधिकतम मूल्य वसूलतीं हैं। यदि एक क्षेत्र के लिए कम से कम प्रजातियां चिन्हित हों तो थोड़े प्रशिक्षण के बाद उनका बीज बनाना किसानों के लिए भी संभव हो सकता है। प्रजातियों के विकास से उत्पादन बढ़ाना सिंगल डाइरेक्शन सोच है। एक बार एक व्यक्ति ने मुझे बताया कि वो मैदानी इलाकों के लिए ऐसी मछली विकसित कर रहा था जो ठण्ड में न मरे। मैंने उसे राय दी की भाई ठन्डे इलाके की मछली ले आओ शायद वो जिन्दा रह जाए। लेकिन फ्री की राय में वित्तीय प्रावधान तो होता नहीं इसलिए वो भाई अभी तक अपने प्रयास में तन-मन-धन से लगे हुए हैं। संभवतः हम सभी कृषि समस्याओं का समाधान फसल सुधार के द्वारा करना चाहते हैं। किन्तु अच्छे से अच्छे बीज को चाहिए खाद, पानी और उचित प्रबंधन। खाद्यान्नों की उत्पादन और उपलब्धता बढ़ाने के लिये समग्र दृष्टि की आवश्यकता है। अच्छे बीज, उर्वर भूमि, समुचित जल प्रबंधन, उचित शस्य क्रियाएँ और साथ में मशीनीकरण, भण्डारण और प्रसंस्करण में ग्रामीण सहभागिता के द्वारा ही हम कृषि को उद्योग के रूप में स्थापित कर सकते हैं। किसी भी उद्योग के लिये ब्रेक इवन पॉइंट का निर्धारण किया जाता है। इसी प्रकार कितनी भूमि और कितनी पैदावार किसान के लिये फायदेमंद होगी इसका आँकलन ज़रूरी है। जितना प्रयास हम फसलों को उन्नत करने में कर रहे हैं उससे कम खर्च में वर्षा और भूगर्भ जल का संचयन और संवर्धन कर के हम अधिक से अधिक वर्षा आधारित कृषि क्षेत्र को सिंचित क्षेत्र में बदल कर पैदावार बढ़ा सकते हैं। इससे मौसम पर हमारी निर्भरता कम होगी और मौसम की मार से भी रहत मिलेगी। सर आज की लड़ाई हमें उन्हीं हथियारों से लड़नी है, जो हमारे हाथ में हैं। सस्टेनेबिलिटी अर्थात निरंतरता किसी भी उद्योग का मूल है। ये बात कृषि पर भी लागू है। उन्नत प्रजातियों की उत्पादन क्षमता और वास्तविक उत्पादन में सदैव अंतर रहा है। हमें ऐसे प्रबंधन परिक्षण करने चाहिये जिससे हम उत्पादन को उस प्रजाति की अधिकतम उत्पादन क्षमता तक ले जा सकें। ऐसा बोल के इंजिनियर शर्मा आत्मविभोर होकर चुप हो गया। उसे लगा उसने देश की खाद्यान्न समस्या सिर्फ अपनी बातों से सुलझा दी। उसे क्या पता था कि विद्वान लोग समस्या को सुलझाने नहीं उलझाने में यकीन रखते हैं। समस्या है तो विद्वान हैं। समस्या खत्म तो विद्वान की आवश्यकता भी ख़त्म हो सकती है।   

इस बीच सभा में उपस्थित सभी के चेहरे पर विभिन्न हाव-भाव आते और जाते रहे। शर्मा के खैरख्वाह आँखें मार-मार के उसे चुप होने को आगाह करते रहे। पर उस पर तो जैसे विक्रम वाला वेताल सवार था, ये बात अलग थी कि यहाँ हलाल वेताल को होना था और ठहाके विक्रम को लगाने थे। सत्य आधार जी को सुनने की आदत तो थी नहीं। उन्हें शर्मा का इस प्रकार बोलना अखर गया। लेकिन इस बक्से के बाहर की सोच को वो चुप भी नहीं करा सकते थे। वो मुस्कराते हुए बोले इंजिनियर तुम्हें अपना जीनोटाइप मालूम है। शर्मा आश्चर्यचकित सा बोला - नहीं सर। "तुम्हारा जीनोटाइप है यूएसए टाइप। यू नो मीनिंग ऑफ़ यूएसए, इट्स अन-सटिस्फाइड आंटी यानि असंतुष्ट चाची"। पूरी सभा सन्नाटे में आ गयी। अपने गज़ब का सेन्स ऑफ़ ह्यूमर की तारीफ करते हुये सत्य आधार जी का ठहाका कमरे में गूँज रहा था।

शर्मा ने सत्य आधार (जी की अब कोई गुंजाईश न थी) की आँखों में आँखे घुसेड़ दीं। सर आपने न सिर्फ मेरा बल्कि अपना जीनोटाइप भी बता दिया। साऊथ अफ्रीका। उसके बाद जो हुआ वो कहानी का हिस्सा नहीं है। 

- वाणभट्ट

मंगलवार, 20 मई 2014

गुज़र तो जाएगी तेरे बगैर भी लेकिन...

गुज़र तो जाएगी तेरे बगैर भी लेकिन...

एक दिन सपने में देखा सपना। वैसे सपने में सपना देखने का कॉपीराइट चचा गुलज़ार का है। पर वो भतीजा ही क्या जो चाचा के माल पर अपना अधिकार न समझे। तो साहबान सपने में सपना इसलिए कि ऐसे सपनों के सपने में भी सच होने की सम्भावना असंभव सी लगती है। जैसे अमिताभ बच्चन फिल्मों में अमोल पालेकर की वजह से मार्केट से आउट हो जाये। ये सपना भी कुछ ऐसा ही था। हमारे महान देश में व्यवस्था परिवर्तन हो गया है। और वो भी कोई छोटा-मोटा नहीं। अमूल-चूल। सरकार ऐसी जो सेवा करना चाहे। नौकरशाही भ्रष्टाचार से मुक्त। सारे काली कमाई वाले जेल के अंदर। पेट की खातिर जुर्म करने वाले जेल के बाहर। सबको रोजगार। दगाबाज और देशद्रोहियों की खैर नहीं। न सिर्फ विदेशों में पड़ा काला धन बल्कि देश में जमा सारा काला धन कुर्क कर लिया गया।काले-सफ़ेद सभी तरह के हराम के धंधे बंद। पुलिस चाक-चौबंद। शुद्ध जल और वायु। प्रदूषण का अंत। गंगा साफ़। इधर-उधर गंदगी फैलाना और थूकना ख़त्म। सांप्रदायिक सदभाव, सर्वत्र व्याप्त। नारी उत्पीड़न और दहेज़ मानो बीते ज़माने की बात। पडोसी मुल्कों की क्या मज़ाल कि हमारी ओर आँख भी उठा सकें। दूर देशों में हमारे सामानों का निर्यात बढ़ गया है। चीन और अमरीका के बाजार भारतीय सामानों से अटे पड़े हैं। लोकपाल आ गया। किसी पर आय से अधिक संपत्ति का शक हुआ नहीं कि वो जांच की गिरफ्त में। राम-राज्य का सपना जो प्रभु राम के समय भी पूरा न हो सका था, पूरा हो गया। ये सपना किसी एक ने देखा ऐसा न था। देश के सभी भ्रष्टों को एक साथ सुबह चार बज के पैंतालीस मिनट पर ये सपना आया। इतना भयावह सपना सपने के अंदर ही देखा जा सकता है। सब अंदर तक हिल गए। सुबह का सपना है कहीं सच हो गया तो।

जिस प्रकार त्रिजटा राक्षसी को लंका दहन से पहले ही अनिष्ट की सम्भावना हो गयी थी एक स्वप्न के माध्यम से। भ्रष्टों के भ्रष्ट भी इस दुःस्वप्न को लेकर चिंतित हैं। किन्तु रावण को भी मरते दम तक ये एहसास कहाँ हो पाया कि वो गलत पक्ष और वजह के लिए लड़ रहा है। इस धन-बल से ग्रसित महाबलियों को भारत के महान लोकतंत्र पर वृहद आस्था है। वे आश्वस्त हैं कि बरसों से पुष्पित-पल्लवित हमारे पुरखों की भ्रष्टाचार में लिप्त विरासत सिर्फ सरकार बदल जाने से दम तोड़ दे ऐसा कतिपय संभव नहीं। ऐसा कभी हो सकता है कि आज़ादी के पहले और आज़ादी के बाद की गुलामी और कुशासन का जीवन जीते-जीते जनता जाग जाए और पूरे के पूरे सिस्टम को ही कटघरे में खड़ा कर दे। जनता बदलाव चाहती है जबकि सत्ता वर्षों से पोषित कुव्यवस्था को ही महिमा मंडित करने में लगी रहती है। हर देश में विषमताएं होती ही हैं। सत्ता कम से कम प्राकृतिक समस्याओं के समाधान में लगी रहतीं तो भला था। पर यहाँ तो सत्ता ने अनेक मानव निर्मित विषमताएं रच डालीं। जिस भी क्षेत्र पर शासन की नज़र पड़ी समस्या पैदा हो गयी। देश है तो समस्याएं हैं, समस्याएं हैं तो उनके समाधान खोजने के लिये विद्वतजन हैं। विद्वतजन कोई सस्ता उपाय बतायें तो हर कोई अपना ले। लेकिन फिर बजट भी कम हो जायेगा। जब बजट होगा तो उसके कार्यन्वयन में सरकारी अमला होगा। इस अमले में हर एक के आगे पेट लगा है और जब पेट लगा है तो भूख भी होगी। और भूख है तो पहले अपनी-अपनी बुझाओ, देश गया भाड़ में। ऐसी महान सेवा भावना के आगे हर किसी को नत-मस्तक देख हर किसी ने इसे ही सफलता का मूल-मन्त्र मान लिया है। जिनके पास ऐसी नौकरी नहीं है तो ये मान लिया जाता है कि इनके पास न तो पेट होगा न भूख। यही वो लोग हैं जिनकी सेवा के लिए सरकार बनी है। इनमें मज़दूर, किसान, व्यापारी व  अन्य प्राइवेट सेक्टर में काम करने वाले शामिल हैं। अपने जीविकोपार्जन में व्यस्त इन लोगों में तोंद जैसी उपलब्धि खोज पाना थोड़ा दुर्लभ है। यदि कोई भी व्यक्ति इस एक्सेसरी से युक्त है तो मान लीजिये वो किसी न किसी प्रकार से दूसरों के हिस्से का भोगी या भागी है।

भ्रष्टाचार की जड़ में है समस्या की खोज। सभी विद्वतजन मिल बैठ कर सरकार को ये बताते हैं की फलां जगह फलां समस्या है। समस्या जब तक छोटी है वो समस्या नहीं है। समस्या का आकर उसके समाधान में होने वाले फण्ड द्वारा निर्धारित होता है। इस क्षेत्र में विदेशी ट्रेनिंग और एक्सपर्टीज़ की जरुरत हो तो समस्या सार्वभौमिक टाइप की हो जाएगी। जिसका समाधान विदेश यात्रा करने मात्र से निकल आएगा। कुछ समस्याओं की ओर विद्वत जन  मात्र इस लिए ध्यान नहीं दे रहे हैं कि विदेशों में इनका समाधान नहीं है। ऐसी ही समस्या है गाँवों में नील गाय और शहरों में बंदरों की बढ़ती तादाद। पर अभी इन समस्याओं का आविर्भाव विकसित देशों में नहीं हुआ है इसलिए इनका समाधान मिलना मुश्किल है। इनके समाधान में ज़्यादा बजट एलोकेट करने की  गुंजाईश भी नहीं है लिहाजा हमारे विद्वानों का इनको समस्या मानने से भी इंकार है। साठ के दशक में नील गाय की समस्या का ज़िक्र संसद में मिलता है जब इसे वनरोज डिक्लेयर करने की बात उठी थी। पर बहुत संभव है उपयुक्त बजट एलोकेशन के आभाव में इस समस्या को स्थगित कर दिया गया हो। जब तक खाने-पचाने के लिये बजट में पर्याप्त प्रावधान न हो समस्या को नज़रअंदाज़ करने में ही देश और समाज का हित है। एक तरफ समस्या के परिमाण को दिनोदिन बढ़ाते जाइये दूसरी तरफ ऐसा इलाज खोजने में शक्ति-संसाधन व्यय कीजिये जो कारगर न हो सके।


बाढ़-सूखा, आंधी-तूफान तो प्राकृतिक आपदाएं हैं। पर इनका समाधान तो मनुष्य के द्वारा ही किया जा सकता है। भारत की समृद्ध जलवायु इस बात आश्वासन तो देती ही है कि यदि सूखा नहीं पड़ा तो इस वर्ष बाढ़ अवश्यम्भावी है। ऐसे में प्राकृतिक आपदा प्रबंधन विभाग को ज़्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती। सूखा और बाढ़ राहत पैकेज का डाटा तो कम्प्यूटर में फीड है। जनसँख्या के हिसाब से डाटाबेस खुद ही फण्ड का आंकलन कर देता है। बस प्रिंट कमांड देना है और वित्तीय प्रावधान निकल आएगा। पर इस प्रकार की आपदा से पीड़ित लोग अमूमन आम आदमी होते हैं। जिन्हें ये तक नहीं मालूम होता कि वो खबरों की सुर्खियां बन चुके हैं। टाइम्स के फ्रंट पेज पर उनकी फोटो छपी है और सरकार ने उनकी पुनर्स्थापना के लिए लाखों की राशि संस्तुति कर रखी है।

कुछ शासन निर्मित समस्याएं भी हुआ करतीं हैं। अक्सर इनके साथ वोट चिपका होता है। फलां जाति-सम्प्रदाय के लोग पुअरेस्ट ऑफ़ पुअर की श्रेणी में आते हैं। इसलिए उन्हें मुफ्त रोटी, कपडा और मकान मिलना चाहिये। उन्हें शिक्षा भी मिलनी चाहिये। कोई ये बताये की यदि किसी को जीवन के लिए आवश्यक चीजें बिना परिश्रम के मिल जाए तो वो काम ही क्यों करे और पढाई तो करने का सवाल ही नहीं उठता। ये बात अलग है कि इन लोगों के नाम पर जो राशि स्वीकृत हुयी, उसे उन्हीं के कुछ बंधु -बांधव, नेता-मंत्री-संतरी मिल-बाँट के चट कर गये। ऐसी ही कुछ सार्वदेशीय समस्याएं हैं बिजली-पानी-सड़क। ये अगर लोगों को मिल गया तो लोग ज़्यादा समृद्ध हो जाएंगे। समृद्ध हो जाएंगे तो टी वी देखेंगे। पढ़-लिख भी लेंगे। देश-दुनिया देख कर ही तो आज़ादी के दीवानों को लगा कि हम गुलाम हैं और गुलामों की कोई आवाज़ नहीं होती। ज्ञान मिल गया तो सोचने भी लगेंगे भला हमारा देश दूसरे फिसड्डी देशों से पीछे कैसे। सरकार में कमी है तो सरकार बदल दो। और सत्ता गयी तो वर्षों का पाला-पोसा सिस्टम भी बदल जायेगा। और सिस्टम बदल गया तो कौन भला हमारी और हमारे पेट की सोचेगा। आज़ाद लोग सिस्टम के काम नहीं आते बल्कि वो सिस्टम से काम लेने लगते हैं, जवाबदेही तय करने लगते हैं। ऐसी स्थिति में फख्र से अर्जित नौकरी असली नौकरी में बदल जाती है। जब मुखिया ही खुद को नौकर नंबर वन मानता हो तो ऐसी स्थिति में परमानेंट-गवर्नमेंट-सर्वेंट नौकरी का क्या लुत्फ़ ले पायेगा। तुर्रा ये कि किसी भी समय कोई पीछे पड़ गया तो आय से अधिक संपत्ति लोकपाल हड़प लेगा। ऐसा जीना भी कोई जीना होगा। ऐसे में एक ही शेर जेहन में कौंधता है - 

गुज़र तो जाएगी तेरे बगैर भी लेकिन 
बहुत उदास बहुत बेकरार गुज़रेगी...


- वाणभट्ट


संस्कार

संस्कार शब्द जब भी कान में पड़ता है तो हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान का ही ख़्याल आता है. भारत में विशेष रूप से हिन्दुओं के संदर्भ में संस्कार का ...