मंगलवार, 20 मई 2014

गुज़र तो जाएगी तेरे बगैर भी लेकिन...

गुज़र तो जाएगी तेरे बगैर भी लेकिन...

एक दिन सपने में देखा सपना। वैसे सपने में सपना देखने का कॉपीराइट चचा गुलज़ार का है। पर वो भतीजा ही क्या जो चाचा के माल पर अपना अधिकार न समझे। तो साहबान सपने में सपना इसलिए कि ऐसे सपनों के सपने में भी सच होने की सम्भावना असंभव सी लगती है। जैसे अमिताभ बच्चन फिल्मों में अमोल पालेकर की वजह से मार्केट से आउट हो जाये। ये सपना भी कुछ ऐसा ही था। हमारे महान देश में व्यवस्था परिवर्तन हो गया है। और वो भी कोई छोटा-मोटा नहीं। अमूल-चूल। सरकार ऐसी जो सेवा करना चाहे। नौकरशाही भ्रष्टाचार से मुक्त। सारे काली कमाई वाले जेल के अंदर। पेट की खातिर जुर्म करने वाले जेल के बाहर। सबको रोजगार। दगाबाज और देशद्रोहियों की खैर नहीं। न सिर्फ विदेशों में पड़ा काला धन बल्कि देश में जमा सारा काला धन कुर्क कर लिया गया।काले-सफ़ेद सभी तरह के हराम के धंधे बंद। पुलिस चाक-चौबंद। शुद्ध जल और वायु। प्रदूषण का अंत। गंगा साफ़। इधर-उधर गंदगी फैलाना और थूकना ख़त्म। सांप्रदायिक सदभाव, सर्वत्र व्याप्त। नारी उत्पीड़न और दहेज़ मानो बीते ज़माने की बात। पडोसी मुल्कों की क्या मज़ाल कि हमारी ओर आँख भी उठा सकें। दूर देशों में हमारे सामानों का निर्यात बढ़ गया है। चीन और अमरीका के बाजार भारतीय सामानों से अटे पड़े हैं। लोकपाल आ गया। किसी पर आय से अधिक संपत्ति का शक हुआ नहीं कि वो जांच की गिरफ्त में। राम-राज्य का सपना जो प्रभु राम के समय भी पूरा न हो सका था, पूरा हो गया। ये सपना किसी एक ने देखा ऐसा न था। देश के सभी भ्रष्टों को एक साथ सुबह चार बज के पैंतालीस मिनट पर ये सपना आया। इतना भयावह सपना सपने के अंदर ही देखा जा सकता है। सब अंदर तक हिल गए। सुबह का सपना है कहीं सच हो गया तो।

जिस प्रकार त्रिजटा राक्षसी को लंका दहन से पहले ही अनिष्ट की सम्भावना हो गयी थी एक स्वप्न के माध्यम से। भ्रष्टों के भ्रष्ट भी इस दुःस्वप्न को लेकर चिंतित हैं। किन्तु रावण को भी मरते दम तक ये एहसास कहाँ हो पाया कि वो गलत पक्ष और वजह के लिए लड़ रहा है। इस धन-बल से ग्रसित महाबलियों को भारत के महान लोकतंत्र पर वृहद आस्था है। वे आश्वस्त हैं कि बरसों से पुष्पित-पल्लवित हमारे पुरखों की भ्रष्टाचार में लिप्त विरासत सिर्फ सरकार बदल जाने से दम तोड़ दे ऐसा कतिपय संभव नहीं। ऐसा कभी हो सकता है कि आज़ादी के पहले और आज़ादी के बाद की गुलामी और कुशासन का जीवन जीते-जीते जनता जाग जाए और पूरे के पूरे सिस्टम को ही कटघरे में खड़ा कर दे। जनता बदलाव चाहती है जबकि सत्ता वर्षों से पोषित कुव्यवस्था को ही महिमा मंडित करने में लगी रहती है। हर देश में विषमताएं होती ही हैं। सत्ता कम से कम प्राकृतिक समस्याओं के समाधान में लगी रहतीं तो भला था। पर यहाँ तो सत्ता ने अनेक मानव निर्मित विषमताएं रच डालीं। जिस भी क्षेत्र पर शासन की नज़र पड़ी समस्या पैदा हो गयी। देश है तो समस्याएं हैं, समस्याएं हैं तो उनके समाधान खोजने के लिये विद्वतजन हैं। विद्वतजन कोई सस्ता उपाय बतायें तो हर कोई अपना ले। लेकिन फिर बजट भी कम हो जायेगा। जब बजट होगा तो उसके कार्यन्वयन में सरकारी अमला होगा। इस अमले में हर एक के आगे पेट लगा है और जब पेट लगा है तो भूख भी होगी। और भूख है तो पहले अपनी-अपनी बुझाओ, देश गया भाड़ में। ऐसी महान सेवा भावना के आगे हर किसी को नत-मस्तक देख हर किसी ने इसे ही सफलता का मूल-मन्त्र मान लिया है। जिनके पास ऐसी नौकरी नहीं है तो ये मान लिया जाता है कि इनके पास न तो पेट होगा न भूख। यही वो लोग हैं जिनकी सेवा के लिए सरकार बनी है। इनमें मज़दूर, किसान, व्यापारी व  अन्य प्राइवेट सेक्टर में काम करने वाले शामिल हैं। अपने जीविकोपार्जन में व्यस्त इन लोगों में तोंद जैसी उपलब्धि खोज पाना थोड़ा दुर्लभ है। यदि कोई भी व्यक्ति इस एक्सेसरी से युक्त है तो मान लीजिये वो किसी न किसी प्रकार से दूसरों के हिस्से का भोगी या भागी है।

भ्रष्टाचार की जड़ में है समस्या की खोज। सभी विद्वतजन मिल बैठ कर सरकार को ये बताते हैं की फलां जगह फलां समस्या है। समस्या जब तक छोटी है वो समस्या नहीं है। समस्या का आकर उसके समाधान में होने वाले फण्ड द्वारा निर्धारित होता है। इस क्षेत्र में विदेशी ट्रेनिंग और एक्सपर्टीज़ की जरुरत हो तो समस्या सार्वभौमिक टाइप की हो जाएगी। जिसका समाधान विदेश यात्रा करने मात्र से निकल आएगा। कुछ समस्याओं की ओर विद्वत जन  मात्र इस लिए ध्यान नहीं दे रहे हैं कि विदेशों में इनका समाधान नहीं है। ऐसी ही समस्या है गाँवों में नील गाय और शहरों में बंदरों की बढ़ती तादाद। पर अभी इन समस्याओं का आविर्भाव विकसित देशों में नहीं हुआ है इसलिए इनका समाधान मिलना मुश्किल है। इनके समाधान में ज़्यादा बजट एलोकेट करने की  गुंजाईश भी नहीं है लिहाजा हमारे विद्वानों का इनको समस्या मानने से भी इंकार है। साठ के दशक में नील गाय की समस्या का ज़िक्र संसद में मिलता है जब इसे वनरोज डिक्लेयर करने की बात उठी थी। पर बहुत संभव है उपयुक्त बजट एलोकेशन के आभाव में इस समस्या को स्थगित कर दिया गया हो। जब तक खाने-पचाने के लिये बजट में पर्याप्त प्रावधान न हो समस्या को नज़रअंदाज़ करने में ही देश और समाज का हित है। एक तरफ समस्या के परिमाण को दिनोदिन बढ़ाते जाइये दूसरी तरफ ऐसा इलाज खोजने में शक्ति-संसाधन व्यय कीजिये जो कारगर न हो सके।


बाढ़-सूखा, आंधी-तूफान तो प्राकृतिक आपदाएं हैं। पर इनका समाधान तो मनुष्य के द्वारा ही किया जा सकता है। भारत की समृद्ध जलवायु इस बात आश्वासन तो देती ही है कि यदि सूखा नहीं पड़ा तो इस वर्ष बाढ़ अवश्यम्भावी है। ऐसे में प्राकृतिक आपदा प्रबंधन विभाग को ज़्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती। सूखा और बाढ़ राहत पैकेज का डाटा तो कम्प्यूटर में फीड है। जनसँख्या के हिसाब से डाटाबेस खुद ही फण्ड का आंकलन कर देता है। बस प्रिंट कमांड देना है और वित्तीय प्रावधान निकल आएगा। पर इस प्रकार की आपदा से पीड़ित लोग अमूमन आम आदमी होते हैं। जिन्हें ये तक नहीं मालूम होता कि वो खबरों की सुर्खियां बन चुके हैं। टाइम्स के फ्रंट पेज पर उनकी फोटो छपी है और सरकार ने उनकी पुनर्स्थापना के लिए लाखों की राशि संस्तुति कर रखी है।

कुछ शासन निर्मित समस्याएं भी हुआ करतीं हैं। अक्सर इनके साथ वोट चिपका होता है। फलां जाति-सम्प्रदाय के लोग पुअरेस्ट ऑफ़ पुअर की श्रेणी में आते हैं। इसलिए उन्हें मुफ्त रोटी, कपडा और मकान मिलना चाहिये। उन्हें शिक्षा भी मिलनी चाहिये। कोई ये बताये की यदि किसी को जीवन के लिए आवश्यक चीजें बिना परिश्रम के मिल जाए तो वो काम ही क्यों करे और पढाई तो करने का सवाल ही नहीं उठता। ये बात अलग है कि इन लोगों के नाम पर जो राशि स्वीकृत हुयी, उसे उन्हीं के कुछ बंधु -बांधव, नेता-मंत्री-संतरी मिल-बाँट के चट कर गये। ऐसी ही कुछ सार्वदेशीय समस्याएं हैं बिजली-पानी-सड़क। ये अगर लोगों को मिल गया तो लोग ज़्यादा समृद्ध हो जाएंगे। समृद्ध हो जाएंगे तो टी वी देखेंगे। पढ़-लिख भी लेंगे। देश-दुनिया देख कर ही तो आज़ादी के दीवानों को लगा कि हम गुलाम हैं और गुलामों की कोई आवाज़ नहीं होती। ज्ञान मिल गया तो सोचने भी लगेंगे भला हमारा देश दूसरे फिसड्डी देशों से पीछे कैसे। सरकार में कमी है तो सरकार बदल दो। और सत्ता गयी तो वर्षों का पाला-पोसा सिस्टम भी बदल जायेगा। और सिस्टम बदल गया तो कौन भला हमारी और हमारे पेट की सोचेगा। आज़ाद लोग सिस्टम के काम नहीं आते बल्कि वो सिस्टम से काम लेने लगते हैं, जवाबदेही तय करने लगते हैं। ऐसी स्थिति में फख्र से अर्जित नौकरी असली नौकरी में बदल जाती है। जब मुखिया ही खुद को नौकर नंबर वन मानता हो तो ऐसी स्थिति में परमानेंट-गवर्नमेंट-सर्वेंट नौकरी का क्या लुत्फ़ ले पायेगा। तुर्रा ये कि किसी भी समय कोई पीछे पड़ गया तो आय से अधिक संपत्ति लोकपाल हड़प लेगा। ऐसा जीना भी कोई जीना होगा। ऐसे में एक ही शेर जेहन में कौंधता है - 

गुज़र तो जाएगी तेरे बगैर भी लेकिन 
बहुत उदास बहुत बेकरार गुज़रेगी...


- वाणभट्ट


9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति, धन्यबाद।

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  2. लेकिन पढ़ के बस मजा आ गया ,सोचती हूँ कि ४ बजके ४५ मिनट पे मैं भी कोई सपना देख ही डालूं

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  3. बहुत रोचक और सटीक आलेख...

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  4. विषमताएं हमने रची हैं तो हल भी खोजने होंगें ..... विचारणीय और प्रासंगिक बात लिए पोस्ट

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  5. भ्रस्ट्राचार कब खतम होगा .उत्तर होगा शायद नहीं
    सुन्दर प्रस्तुति ...

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  6. सूखा और बाढ़ राहत पैकेज का डाटा तो कम्प्यूटर में फीड है। जनसँख्या के हिसाब से डाटाबेस खुद ही फण्ड का आंकलन कर देता है। बस प्रिंट कमांड देना है और वित्तीय प्रावधान निकल आएगा। पर इस प्रकार की आपदा से पीड़ित लोग अमूमन आम आदमी होते हैं। जिन्हें ये तक नहीं मालूम होता कि वो खबरों की सुर्खियां बन चुके हैं। टाइम्स के फ्रंट पेज पर उनकी फोटो
    है और सरकार ने उनकी पुनर्स्थापना के लिए लाखों की राशि संस्तुति कर रखी है।

    क्या यथार्थ चित्रण किया है सर

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  7. लगता है कि गुरु जी की कृपा बरस रही है ..

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  8. सही है ,
    चोर के पीछे लोकपाल ! मंगलकामनाएं चोरों को !! :)

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  9. अपने जीविकोपार्जन में व्यस्त इन लोगों में तोंद जैसी उपलब्धि खोज पाना थोड़ा दुर्लभ है। यदि कोई भी व्यक्ति इस एक्सेसरी से युक्त है तो मान लीजिये वो किसी न किसी प्रकार से दूसरों के हिस्से का भोगी या भागी है। ये बात अलग है कि इन लोगों के नाम पर जो राशि स्वीकृत हुयी, उसे उन्हीं के कुछ बंधु -बांधव, नेता-मंत्री-संतरी मिल-बाँट के चट कर गये। ऐसी ही कुछ सार्वदेशीय समस्याएं हैं बिजली-पानी-सड़क। ये अगर लोगों को मिल गया तो लोग ज़्यादा समृद्ध हो जाएंगे।​एक एक पंक्ति को पढ़ते जाओ , ऐसा लगेगा जैसे आप मेरी , इसकी , उसकी सबकी बात कर रहे हैं !

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