सोमवार, 12 दिसंबर 2016

जड़त्व का सिद्धान्त

जड़त्व का सिद्धान्त 


दुनिया में गति विषयक नियमों के प्रतिपादन का सारा श्रेय न्यूटन महोदय को दिया जाता है। लेकिन भारत के ज्ञानी लोग जानते और मानते हैं कि विज्ञान के सभी विषयों का उद्दभव भारत में ही हुआ था। हम लोग तो ख़ुद अपने लोकल जर्नल्स, वेद और पुराण, लिखने में इतने बिज़ी थे कि अपने ज्ञान को किसी विश्व स्तरीय जर्नल में छापने की सोच भी नहीं पाये। अन्यथा भौतिक, रसायन और वनस्पति शास्त्र के सारे के सारे नियम हमारे खाते में ही आते। मियाँ न्यूटन जब सेब के पेड़ से गिरने का इंतज़ार कर रहे थे तब तक हम उन नियमों का अपने जीवन में आत्मसात कर चुके थे। अब हमें गुरुत्वाकर्षण और जड़त्व कोई क्या सिखायेगा। ऊपर से नीचे जाने और यथास्थिति को बनाये रखने में आजतक हमारा कोई सानी नहीं रहा। गंगा जी को जब आकाश से उतरना था तो कोई ऐसा व्यक्ति चाहिये था जो उस मोमेंट ऑफ़ इनर्शिया को ब्रेक कर सके। गंगा यदि शिव जी की जटाओं में न उतरतीं तो सीधे पाताल लोक पहुँच जातीं। जड़त्व को तो हमारे मौलिक अधिकारों की लिस्ट में सर्वोच्च स्थान मिलना चाहिये था। लेकिन संविधान के लोगों में विज्ञान का ज्ञान कम होने के कारण यह नियम आजतक हमारे मौलिक अधिकारों में शामिल नहीं हो पाया है। 



जड़ता हमारे देश के कण-कण में व्याप्त है। जब एक जगह अवस्थित होकर हम अपने भीतर ही आत्मसाक्षात्कार जैसे अनिर्वचनीय सुख का अनुभव कर सकते हैं तो भौतिक सुख-समृद्धि के लिये दुनिया को हिला डालना कहाँ की समझदारी है। ब्रम्हानंद और परमानन्द की खोज कोई और क्यों नहीं कर सका। क्योंकि किसी और को उनके गुरुओं ने स्थिर हो के बैठना सिखाया ही नहीं। दिमाग़ को हर रोज़ फॉरमैट करने का प्रावधान किसी और देश से नहीं आरम्भ हो सका। अब जब हम आनंद के अनंत सागर की कल्पना में जड़ हो ही गए तो कोई सिकन्दर आये या बाबर हमें क्या फर्क पड़ता है। हम तो राजा और रंक में भी विभेद नहीं रखते। तुम जग के राजा तो हम मन के राजा। बात बराबर। 



जीवन का सार हमें विरासत में दिया जाता है। क्या लेकर आये हो और क्या लेकर जाना है। जिन्हें ये नहीं पता वो अमरीका खोजें और भारत तक का समुद्री मार्ग तलाशें। हमारा क्या हम तो जिस विधि राखे राम उसी में खुश। इसीलिए हमारे यहाँ क्राँतियाँ नहीं होतीं। मुग़ल आये तो मुग़ल हमारे बादशाह अंग्रेज आये तो रानी हमारी विक्टोरिया। अमरीका में क्राँति होती है तो बीस साल में अंग्रेजों को खदेड़ दिया गया। यहाँ 1857 के बाद कोई क्राँति नहीं हुई। हाँ क्राँतिकारी अवश्य हुये। जिन्होंने अवाम में व्याप्त जड़ता को तोड़ने का प्रयास तो किया, लेकिन जनता में जड़त्व का प्रभुत्व इस कदर छाया रहा होगा कि उसे जन-आंदोलन का रूप नहीं मिल पाया।बल्कि कितने ही क्रांतिकारी देशप्रेम की अलख जगाते-जगाते शहीद की श्रेणी में पहुँच गये। हरित और सूचना क्राँति जन-चेतना का रूप हैं उन्हें आन्दोलन का नाम नहीं दिया जा सकता। आज भी यही जड़ता हर जगह परिलक्षित होती है। मुझे पूरी उम्मीद हैं कि तब और अब की स्थिति में कोई विशेष अंतर नहीं आया होगा। तब भी सत्य-अहिंसा-न्याय की बात करने वाले अल्पसंख्यक थे। आज भी भगत सिंह पड़ोसी के घर ही अच्छे लगते हैं। ऐसे ही कोई देश सैकड़ों वर्ष की गुलामी नहीं ढोता। आज भी कोई बदलाव की बात करता है तो हम तुरंत उसे नकार देते हैं। कहते हैं भाई यहाँ तो ऐसा ही होता रहा है। घूस और दहेज़ भी हमारी परम्परा का हिस्सा बन चुके हैं। गन्दगी तो बाहर है हम मन साफ़ रखते हैं। खुले में शौच से कई लाभ हैं एक तो रिहायशी इलाकों से दूर जाने के चक्कर में टहलना हो जाता है और खेतों की मिट्टी को ख़ुराक़ मिल जाती है।   


गाँधी, सुभाष और शास्त्री जी में संभवतः वह नैतिक बल था कि उनके आवाह्न पर देश के लोग बड़े से बड़ा त्याग करने को उद्दत हो जाते थे। तब ज़माना मीडिया ट्रायल का नहीं था कि उनकी बातों की बाल की खाल निकाली जाती। ना तब जनता बयान देते नेता की भाव-भंगिमा देख पाती थी। अखबार में जो छप गया, लोगों ने अपनी-अपनी श्रद्धा के साथ ग्रहण कर लिया। अब नेता को देश कैमरे की आँखों से देखता है। देश से आँख मिला के बात कर पाने के लिये भी एक नैतिक बल चाहिये। जो अधिसंख्य तथाकथिक लीडरान में नहीं है। उनकी भाषा और चरित्र दोनों ही लिबलिबे हैं जिसे कैमरे से छिपा पाना असंभव हो जाता है। ये नेता लीड कम और लीद ज्यादा करते हैं। लेकिन फिर भी हमारी जड़ता की जड़ें इतने गहरे पैठीं हैं कि कोई आँखों-देखी पर भी भरोसा करने को राजी नहीं है। शक़ के बीज बो रही जड़ता की एक खूबी ये है कि वो बिना संशय के मान लेती है जो उसे बताया जाता है। आज भी लोग अपनी पसंद का अखबार या चैनल देखना पसंद करते हैं। सरकार के विपक्षी और विरोधी पत्रकार सरकारी योजनाओं की धज्जियाँ उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। और समर्थक उतनी ही शिद्दत से सरकार के पक्ष में पैरोकारी करते नज़र आते हैं। कोई तटस्थ तरीके से तथ्यों को नहीं रखता-देखता। यही हाल जनता का है। या तो सरकार के पक्ष में खड़ी होती है या विरोध में। कुछ तो सिर्फ इसलिए विरोध करते हैं कि इसी विरोध पर ही उनकी रोजी-रोटी टिकी है। गलत को गलत और सही को सही कहना हमेशा कठिन रहा है। चाहे घर हो या बाहर। बाप यहाँ बेटे में श्रवणकुमार ढूंढता है और गुरु एकलव्य। जब नयी पीढ़ी इन आदर्शों पर प्रश्न उठाती है, तो लोग ज़माने के ख़राब होने की दुहाई देने लगते हैं। 


मै "इंसाफ की डगर पर बच्चों दिखाओ चल कर" सुन कर बड़े होने वालों की जमात से हूँ और मै अब ये दावे से कह सकता हूँ कि हम मानते हैं कि आदर्श और नीति सिर्फ बच्चों के लिए हैं। बड़ा कोई ऐसी बात करे तो बड़े आराम से कह देते हैं कि ये बच्चा ही रह गया। किसी को यदि देश अधोगति में जाता लगता है तो वो बच्चों की वजह से नहीं हमारी वजह से है। शायद हम उनके सामने उचित आदर्श प्रस्तुत करने में विफल रहे हैं। सबसे ज्यादा निराश करता है शिक्षित और संपन्न वर्ग। जो नियम-कानून का पालन करने से गुरेज़ करता है। मानता है रूल्स आर ओनली फॉर फूल्स। तथाकथिक पढ़े-लिखे लोग सही और गलत में अंतर न कर पाएं तो इस शिक्षा व्यवस्था पर संदेह होना लाज़मी है। आज जब स्वच्छता अभियान की बात होती है तो वो सड़क पर किलो भर थूक उगल के कहता है "सफाई अभियन्वा फेल हुई गवा"। स्वच्छता अभियान का मूल उद्देश्य सम्भवतः लोगों में जागरूकता पैदा करना था कि कम से कम वो कूड़ा फैलाना तो बंद कर दें। सफाई कर्मियों की कठिनाइयों और कर्तव्यों के प्रति लोगों का ध्यान आकृष्ट करना रहा है। लेकिन लोग इसे सरकार की विफलता बता कर खुश हो रहे हैं। लेन में चलना हो या लाइन लगाना इन पढ़े-लिखे अनपढों से आप अधिक उम्मीद नहीं कर सकते।   

आजकल टीवी पर ऐसा ही एलान पूरी बेशर्मी से हो रहा है कि विमुद्रीकरण और कैशलेस अर्थव्यवस्था से कोई लाभ नहीं होने वाला। काला धन, घूस और भ्रष्टाचार को रोक पाना उन्हें असम्भव  लगता है। जितनी मेहनत वो सरकार के दावों की हवा निकालने में कर रहे हैं उतनी कोशिश कैशलेस अर्थव्यवस्था को बढ़ाने में करते तो आम आदमी का संशय कुछ कम होता। लेकिन वे तो इस जागरूकता को बढ़ाने के बजाय उल्टे-पुल्टे बयान दे रहे हैं। दलील है कि भारत जैसे कम साक्षरता वाले देश में ये लागू नहीं हो सकता। इनमें वो लोग भी शामिल हैं जो अनपढ़ जनता को फ्री लैपटॉप और स्मार्ट फ़ोन बाँटने की वकालत करते हैं। दुकानदार मोबाईल बैंकिंग और स्वाइप मशीनें इसलिए लगाने को तैयार नहीं हैं कि उन्हें वाइट मुद्रा में काम करने की आदत नहीं है। एक मिठाई वाला लागत के दुगने मूल्य की मिठाई बेचता है और डिब्बे सहित तौल कर बिना बिल के पैसा वसूलता है। यही हाल लगभग कमोबेश सभी दुकानदारों का है। बिल और टैक्स देना तो इनके ख़्वाब में भी नहीं आता। जड़त्व का सिद्धान्त इस मामले में भी एक सार्वभौमिक सत्य के रूप में उभरा है। 



जड़ता के आलम का अंदाज़ इस बात से ही लगाया जा सकता है कि जनता बैंक और ए टी एम के आगे इसलिए लाइन लगाए खड़ी है ताकि मिठाई वाले को, दवाई वाले को, किराने वाले को, सब्जी वाले को, दूध वाले को पैसा कैश दे सके। एक मिठाई वाले को जब मैंने स्वाइप और मोबाईल बैंकिंग के लिये प्रेरित करने का प्रयास किया तो उसने सीधा प्रश्न किया कि "टैक्स कौन भरेगा। हम तो भैया कैश ही लेंगे। किसी को लेना हो तो ले न लेना हो तो न ले"। 



"क़त्ल की जब उसने दी धमकी मुझे, 
कह दिया मैंने भी देखा जायेगा"


उसी क्षण मैंने निर्णय लिया कि इनका व्यवसाय चमकाने में के लिये इनका साथ नहीं दूँगा। लाइन मै लगाऊँ ताकि आप रोकड़ा गिनें।शुरुआत में कुछ कष्ट हुआ। पर अब मैंने ऐसी दुकानों को छाँट लिया है जो मोबाईल या स्वाइप मशीनों का इस्तेमाल कर रहीं हैं। कैश का इस्तेमाल आपात स्थिति में तो ठीक है लेकिन उनका सहयोग करना मुश्किल लगता है जो अभी भी कैशलेस भुगतान के लिये तैयार नहीं हैं। कम से कम मेरे लिए तो ये संभव नहीं है। अब मै उसी दुकान से क्रय करूँगा जो व्यापार में लाभ के साथ-साथ टैक्स भरने की भी मंशा रखते हों। 



हर लेन-देन का हिसाब जिस दिन शुरू हो जायेगा मुझे लगता है चोरी-चकारी, घूसखोरी, दहेज़ प्रथा, काले धन, बेनामी सम्पत्ति, आदि-इत्यादि बुराइयों का समूल नाश हो जायेगा। जड़त्व को तोड़ने के लिए सबसे पहले जड़ को काटना आवश्यक है। ख़ुदा के लिये इस फ़ैसले की बुराई न कीजिये हो सकता है अच्छे दिन आ ही जायें। फिर आप क्या करोगे। हो सके तो आप भी ये संकल्प लीजिये कि अपने इर्द-गिर्द कैशलेस सेवा का प्रसार-प्रचार करेंगे। वर्ना आपके जड़त्व का फ़ायदा दुकानदार उठाएँगे वो भी डंके की चोट पर। शुरुआत तो उनसे होनी ही चाहिए जो स्वयं को शहरी और शिक्षित समझते हैं। यकीन मानिये अशिक्षित लोगों को यदि नियम-कानून का भान हो तो वो कदाचित ही इसके विपरीत जाते हैं। आज स्लीपर कोच में शायद ही कोई अशिक्षित व्यक्ति बिना उचित टिकट के सफर करता मिले। बैंकर और सीए नेटवर्क इस आंदोलन को फुस्स करने में लगा है। जज साहब को दंगे का अंदेशा होता है तो आयकर विभाग के अधिकारी साफ़गोई से नेशनल चैनेल पर इतने मामलों की तफ्तीश कर सकने की अपनी असमर्थता व्यक्त कर रहे हैं। शायद इन्हें ये नहीं मालूम कि प्राइमरी शिक्षा के लिए भी शिक्षकों की भारी कमी है। इसके बावज़ूद यहाँ ग्रेजुएट्स की संख्या में दिन-रात वृद्धि ही हुयी है और उसी की उत्पत्ति सम्वेदना और संस्कार विहीन लोग उच्च पदों की शोभा बढ़ा रहे हैं। 



सरकार ने एक-एक चूड़ी रोज़ कसने के बजाय पूरा पेंच कस दिया है। पूरा का पूरा डण्डा ही दे दिया है। इसे क्राँति कहने में भी विपक्षी भाई लोग कोताही कर रहे हैं। रोज नये-नये संदेह पैदा किये जा रहे हैं। सौ और हज़ार सालों में कुछ हो भी गया तो मेरे विचार से उसे क्राँति की संज्ञा देना उचित नहीं होगा। क्राँति तो वो है जो मात्र कुछ सालों में ही परिकल्पित, रूपांकित और क्रियान्वित हो जाये। ये कुछ ऐसा ही कदम है। सफलता या असफलता का आँकलन तो समय करेगा। फ़िलहाल अभी तो इस क्राँति में सहयोग दीजिये या तटस्थ हो कर इसका मज़ा लीजिये। आप चाहें या न चाहें बदलाव की बयार तो बह चली है। प्रतिरोध का मार्ग छोड़ कर इस बदलाव स्वीकार करने का जिगरा दिखाइये। वर्चुअल मोटरसाइकिल चल पड़ी है। जड़त्व को मारिये गोली। एक बार पूरे जोर से बोलिये - ढर्र-ढर्र, हर्र-हर्र, घर्र-घर्र, फर्र-फर्र। 

"करत-करत अभ्यास के जड़मति होय सुजान,
रसरी आवत जात के, सिल पर पडत निशान।" 
     
- वाणभट्ट 

मंगलवार, 2 अगस्त 2016

धनात्मक प्रवृत्ति

धनात्मक प्रवृत्ति


शर्मा जी ने सूचना देने के साथ-साथ एक शर्त भी रख दी. वर्मा जी विभागीय पत्रिका के लिये लेख भेजने का परिपत्र निकल चुका है. मै जानता हूँ कि आप लिखने का शौक रखते हो. कोई फड़कता हुआ लेख लिख मारो. लेकिन यार तुम जरा नेगेटिव आदमी लगते हो. ऐसा लिखना कि तुम्हारी निगेटिविटी न झलके. दुनिया में जिधर देखो निगेटिविटी बढ़ती जा रही है. लोग हैं कि आजकल पॉजिटिव रहना चाहते हैं. इसीलिये सलमान खान की बेसिरपैर की पिक्चर्स सुपर-डुपर हिट हो जाती हैं और इरफ़ान खान को अवार्ड्स से संतोष करना पड़ता है. गुत्थी-दादी की भडैन्तियाँ और लाफ्टर चैलेन्ज की बेहूदगियाँ सिर्फ इसलिये पसन्द की जा रही हैं कि लोगों की बेजार ज़िन्दगी में हँसने के ज्यादा विकल्प नहीं बचे हैं. एक जमाना था जब कुंदन शाह और सई परांजपे टीवी पर एक स्वस्थ हास्य पेश करते थे. अब मामला तुरंती-तुरंता का है. पाँच-दस मिनट टीवी मिलता है, देखने को. एक-दो बार भी यदि हँसने का मौका मिल गया तो मँहगे एलइडी टीवी का पैसा वसूल हो गया समझो. लेकिन कुछ भी हो इस बार आप कुछ पोसिटिव ही लिखना.

सजेशन दे कर, मुझे पशोपेश में डाल कर और मेरे अब तक के सारे लिखे-लिखाये पर पानी फेर दिया भाई जिस गति से आये थे उसी गति से निकल लिए. सुझाव देना कब कठिन रहा है?. उन्होंने ये समझाने की गुंजाईश भी नहीं छोड़ी कि व्यंग एक अलग विधा है. अगर व्यंगकार पॉजिटिव एटीटयूड से ग्रसित हो जाये तो इस धरा से व्यंग की विधा का अंत हो जाये. हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, श्री लाल शुक्ल, आर के लक्ष्मण, सुधीर दर, आदि-इत्यादि की दुकानें तो खुलने से पहले ही बंद हो जाती. जॉनी वॉकर, महमूद, राजेंद्र नाथ आदि कलाकारों ने विशुद्ध हास्य पर अपना जीवन काट दिया. अब हास्य का स्तर इतना गिर गया है कि तथाकथित स्टैंड-अप कॉमेडियंस हर दो मिनट पर नॉन-वेज पर उतर आते हैं. लेकिन चूँकि शर्मा जी की हिदायत हैपॉजिटिव बने रहने की, सो मै इसकी बुराई नहीं कर रहा हूँ. इससे एक फायदा ज़रूर हुआ है कि अब बाप-बेटे एक साथ उन महान जोक्स पर नज़रें बचा कर हँस सकते हैं. वो दिन दूर नहीं जब वे एक-दूसरे के हाथ पर गिव मी फाइवकी तर्ज़ पर ताली बजा कर और भी आनंदित हो सकेंगे.

ये पॉजिटिव एटीट्यूड भी गज़ब होता है. दुनिया में हर तरफ वैसे ही हरा-हरा नज़र आता है, जैसे सावन के अन्धे को. यहाँ हालात ऐसे हैं कि जिधर नज़र डालो, एक व्यंग रचना फड़फड़ा रही होती है. आँख वाला यदि वाकई आनंद खोजना चाहता है तो उसे भी आँख बंद करनी होगी. बुराई में अच्छाई खोजने वाला तीसरा नेत्र विकसित करना होगा. राजयोग का सारा फंडा ही यही है. आनंद के लिये वाह्य जगत से कट कर अपने अंतर में उतरो. जिनके पास छोड़ने के लिए बहुत कुछ है उनके लिये ये बात समझ आती है कि कम से कम भोग-विलास तो छोड़ा जा सकता है. लेकिन जिनके पास खोने के लिए न्यूनतम हो उसे त्याग और योग के महात्म्य से कैसे सुखी किया जा सकता है ये एक अबूझ प्रश्न है. लेकिन जैसे अच्छे स्वाद पर सबका हक़ है, वैसे ही प्रसन्नता पर सबका बराबर हक़ है. पता नहीं किसको किस रूप में मिल जाये.

किसी ने बताया कि नित्य-नवीन-आनंद चाहिए तो वो सिर्फ ईश संपर्क से ही मिल सकता है. दुनिया तो सिर्फ माया है, छलावा है. शादी और बच्चे हो चुके थे. अस्सी साल की औसत आयु मान कर सोचा 40 साल में वानप्रस्थ शुरू किया जा सकता है. पता नहीं कितने घाट का पानी पिया तब जा कर एक बाबा जी के सम्मोहन में ने पूरी तरह फँसा. बड़ी चिलम भरी तब बाबा जी ने ज्ञान दिया कि भक्त इसी क्षण तुम्हें ईश-दर्शन हो सकते हैं यदि तुम प्रतिबद्ध होकर प्रभु के पीछे पड़ जाओ. बस एक बात का ध्यान रखना जप करते समय झाड़ू के बारे में बिलकुल मत सोचना. लगा अब प्रभु के साक्षात् दर्शन हो के ही रहेगा. पांच-दस दिन अनवरत प्रयास किया. लेकिन प्रार्थना के समय भगवान तो नहीं लेकिन ना-ना प्रकार की झाड़ूवें, नारियल वाली, ताड़ वाली, फूल वाली, सड़क के जमादार वाली, जाला मारने वाली, वैक्यूम क्लीनर आदि-इत्यादि, आँख बंद करते ही आँखों के सामने नाचने लगतीं. दसवें दिन बाबा को चिलम सहित गंगा जी में धक्का देकर जो भागा तो मुड़ के नहीं देखा कि बाबा का क्या हुआ.

जीवन रूपी इस भव सागर को पार करने में पॉजिटिव एटीट्यूड बहुत सहायक होता है. देश कहीं जा रहा हो या दुनिया कहीं, आपको इससे कुछ लेना-देना नहीं है. आपको सिर्फ अपने और अपने स्वार्थ से मतलब होना चाहिये. चाहे चंगेज़ आये या अंग्रेज़. आपको ऐसे किसी चक्कर में नहीं फँसना चाहिए जिसमें दिन का चैन और रात की नींद हराम होती हो. सौ करोड़ के इस देश में यदि आपके पास एक नौकरी है तो खुद को किसी रईस से कम मत समझिये. सरकारी नौकरी है तो क्या कहने और मलाईदार पद है तो बल्ले-बल्ले. सूखा पड़े या आये बाढ़ आपको आपकी मेहनत का फल नियमित रूप से मिल ही जाता है. वो दिन अभी भूला नहीं हूँ जब मोहल्ले में एक लैंड लाइन हुआ करती थी और पूरा मोहल्ला पी.पी. (पडोसी फोन) नंबर बाँट देता था. इस रिक्वेस्ट के साथ कि भाई पडोसी का फोन है रात दस के बाद नहीं करना. लेकिन चाचा जी ने रात-बिरात आने वाले ट्रंककॉलों का कभी बुरा नहीं माना. पड़ोस के मामा जी ने जब शटर वाला डायनोरा टीवी ख़रीदा तो पूरे मोहल्ले को ‘चित्रहार’ देखने का निमंत्रण दिया. टीवी को घर के बाहर वरांडे में स्थापित कर सभी के घरों से आयी दरियों को ज़मीन पर बिछा दिया गया ताकि अधिक से अधिक उनकी ख़ुशी में शरीक हो सकें. हम लोग-बुनियाद-रामायण-महाभारतके लिये उनका दरबार सदैव खुला रहा जब तक हमारे घर ब्लैक एंड वाईट टीवी नहीं आ गया. किसी के व्यक्तिगत ख़ुशी और गम नहीं होते थे. सबकी साझेदारी थी. और ये बहुत पुरानी बात नहीं है जो दादी-नानी से सुनी हो. वो पैकेज-पेबैंड-ग्रेड्पे का ज़माना नहीं था. तनख्वाह कम थी, मोटा खाते थे, मोटा पहनते थे, तो क्या हुआ, दिल सोने के थे.

मुझे पता है कि मेरी इन बातों पर शर्मा जी कहेंगे भाई लानत है आप पर, आप नहीं सुधर सकते. पता नहीं किस दुनिया में रहते हैं और रहना चाहते हैं. यहाँ लोग छठवें और सातवें वेतन आयोग की संस्तुतियों से इसलिए खुश नहीं हैं कि कार के जिस मॉडल की उन्होंने कल्पना की थी उसके लिए आठवें आयोग का इंतज़ार करना पड़ेगा. लोग हर कमरे में एलइडी टीवी लगा रहे हैं यहाँ आप मोहल्ले के साथ टीवी देखने की वकालत कर रहे हैं. ये चाचा-मामा सब माया के दूसरे रूप हैं. आप अकेले आये हैं और अकेले जायेंगे. सो ज़िन्दगी का जो भी मज़ा वो आपका अपना है. परेशानियाँ दूसरों से शेयर कर के आप नाहक हँसी का पात्र बनेंगे. यहाँ भी आपकी निगेटिविटी टपक रही है.

चलिए मै प्रयास करता हूँ कि कुछ सकारात्मक लिखूँ. इसलिये सभी देवी-देवताओं का आह्वाहन करता हूँ कि आज जो भी लिखूँ, जैसा भी लिखूँ, वो सकारात्मक हो और सबसे बड़ी बात कि वो शर्मा जी को भी सकारात्मक लगे.

कश्मीर में अमन-चैन कायम हो गया है. अलगाववादी सेना को फूल मार रहे हैं. देने की आदत छूट गयी है और फेंकने की आदत जाते-जाते जाएगी. चीन-पाकिस्तान-बांग्लादेश-भारत मिलजुल कर तरक्की कर रहे हैं. पूरा विश्व सही मायने में एक ग्लोबल विलेज बन है और भारत पुनः विश्व गुरु के पद पर प्रतिष्ठित हो गया है. पूरी धरती मिल कर ब्रम्हांड के दूसरे ग्रहों पर जीवन की सम्भावना तलाश रही है. विश्व स्तर की देसी सडकों पर विश्व स्तर के नियम-कानून का पालन हो रहा है. सेना और पुलिस के पास दिनभर मूँगफली टून्गने के अलावा कोई काम नहीं बचा है. इस कारण देश-विदेश में मूँगफली की माँग में बेतहाशा वृद्धि हो गयी है. दरअसल सभी देशों में पुलिस और सेना की आवश्यकता ही नहीं रही. मूँगफली का उत्पादन बढ़ाने में सभी राष्ट्रिय और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने दिन-रात एक कर रखा है. एक हज़ार वैज्ञानिक मिल कर जब चन्द्र और मंगल यान अभियान को सफल बना सकते हैं तो सौ-पचास एक साथ मिल कर देश-दुनिया को मूंगफली तो मुहय्या करा ही सकते हैं. पर्यावरण अब पूरी तरह साफ़-सुथरा है. भूकम्प भी अब नहीं आते. ग्लोबल वार्मिंग बीते ज़माने की बात बन के रह गयी है. ठन्डे इलाके में ठंडी और गर्म इलाके में गर्म फसलों को उगाया जा रहा है. जिस क्षेत्र में जो चीज़ पैदा होती है, उसे वहीँ उगा कर दूसरे इलाके में भेज दिया जाता है. ग्लोबल वार्मिंग के समाप्त हो जाने से तमाम खामख्वाह के शोधों की आवश्यकता भी नहीं रह गयी है. हजारों हेक्टेयर में एक ही प्रजाति की फसलें उत्पन्न की जा रही हैं. प्लान्टर और कम्बाइन की सेटिंग को बार-बार एडजस्ट नहीं करना पड़ता. एक ही तरह का कच्चा माल होने के कारण भण्डारण और प्रसंस्करण में हानियाँ नगण्य रह गयी है. देश के अन्न भण्डार और लोगों के पेट इस कदर भर गए हैं कि आवारा गाय-सांड-कुत्ते भी भोजन के लिये छु-छुआते नहीं घूमते. देश में सरकारों का काम सिर्फ सड़क-अस्पताल-खाद्य आपूर्ति-मकान-कपडे तक ही सीमित रह गया है. सबको सब चीज़ समय पर मिल जाती है. अफसरान अपनी-अपनी तनख्वाह में खुश हैं और अफसरशाही-लालफीताशाही का तो नामो-निशान भी मिट गया है. छठवाँ वेतन आयोग  से जो अधिकारी-कर्मचारी एक-दूसरे की शक्ल देखना पसंद नहीं करते थे, कंधे से कन्धा मिला कर देश के विकास में जुटे पड़े हैं. भ्रष्टाचार अब रग-रग इस तरह घुल-मिल गया है कि भूले से कोई इसका ज़िक्र नहीं करता. लोगों का ऐसा मानना है कि विकास और भ्रष्टाचार ‘गो हैण्ड इन हैण्ड’. रोजगार उन्ही को दिया जाता है जिन्हें कुछ न कुछ करते रहने की बिमारी है. बाकी लोग अपने हिसाब से और अपनी पसंद के अनुसार काम करते हैं. इस कारण गवैयों और कलाकारों और लेखकों की संख्या श्रोताओं और दर्शकों और पाठकों के ऊपर निकल गयी है. सर्वत्र आनंद ही आनंद छाया हुआ है. 

इस व्यवस्था में सिर्फ एक ही प्रकार का प्राणी है जो इस अनिर्वचनीय आनन्द से वंचित हैं. वो हैं, व्यंगकार. उनके पास व्यंग लिखने के लिए कुछ बचा ही नहीं है. यही एक कौम है जो विश्व के हर्षोल्लास से दूर डिप्रेशन की हद तक दुखी है. पता नहीं इनमें निगेटिविटी की जड़ें कितनी गहरी हैं. जब तक ये दो-चार कार्टून न बना लें, एक-दो पन्ना काला न कर लें, इन्हें चैन नहीं आता. इनको कहीं भी, किसी भी तरह चैन नहीं है. दुनिया में सकारात्मकता इतनी फ़ैल गयी है कि नकारात्मकता की ओर देखने का समय किसी के पास नहीं है. जब कुछ फैलता है तो कुछ सिकुड़ता भी है. बस कुछ दिनों की बात है ये नकारात्मक टाइप के अल्पसंख्यक लोग या तो सकारात्मक बन कर इस जीवन के मज़े लूटने में लग जायेंगे या फिर चुल्लू भर पानी में छलाँग लगा देंगे. लेख का अंत निगेटिव न लगे इसलिये परम पिता परमात्मा से प्रार्थना है कि आशीर्वाद दें अखिल ब्रम्हांड में सब खुश रहे, मस्त रहें और जीवन के समस्त मज़े लूटें. एक छोटी सी इल्तिज़ा ये भी है कि प्रभु हम जैसे नाचीज़ से उदीयमान व्यंगकारों का भी थोडा ख्याल रखें, थोड़ी निगेटिविटी बनाये रखें ताकि लिखने को कुछ-कुछ मसाला मिलता रहे.

- वाणभट्ट 


रविवार, 19 जून 2016

मेरे पापा

मेरे पापा 

मेरे पापा वैसे ही थे जैसे अमूमन सबके पापा होते हैं। कोई ख़ास बात नहीं थी। देखने में एक आम आदमी से लगते थे। बेहद साधारण से। फिर भी उनकी एक बात उनको बहुत असाधारण और ख़ास बनाती थी कि वो मेरे पिता थे। मेरे कहना थोड़ा गलत होगा। हमारे पिता ज़्यादा उपयुक्त है। हम दो भाइयों के पिता। उस ज़माने में जब चार-छः बच्चे होना अजूबा नहीं लगता था। दो बच्चों पर सीमित हो जाना ये दिखाता है कि बच्चों के समुचित भरण-पोषण को लेकर वो कितने संवेदनशील थे। हमारे पिता जी हमारे लिये वैसे ही ख़ास थे जैसे सबके लिये सबके पापा। 

माँ शादी बाद ही अपनी पढ़ाई जारी रखने की सदइच्छा व्यक्त कर  चुकी थीं। बीए-एमए-एलटी के बाद शिक्षण कार्य कर पाना शायद पिता जी के सहयोग के बिना सम्भव नहीं था। जिसने खुद इलाहाबाद के बंगलों के आउटहाउस में रह कर और ट्यूशन्स करके पढ़ाई की हो उसको शिक्षा का महत्त्व बताने की आवश्यकता नहीं थी। उस समय बच्चे घर के कामों में सहयोग अवश्य किया करते थे। गेहूँ पिसाना-दूध लाना-सब्जी लाना ये तीसरी-चौथी कक्षा तक हर बच्चा सीख ही लेता था। इनसे बचने का पढ़ाई एक मात्र बहाना हुआ करता था। अगर आप पढ़ने के लिये बैठ गये हैं तो पापा फिर किसी भी काम के लिये उठने को नहीं कहेंगे। हमारी ये चाल हमेशा कामयाब रही। 

ज़िम्मेदारियाँ ओढ़ना उन्हें बखूबी आता था। चाहे गाँव से भाइयों-बहनों को शहर ला के पढ़ाना हो, या उनकी नौकरी-शादी करानी हो या दादी की देख-भाल हो। अपने कर्तव्य पथ से हटना उन्होंने नहीं सीखा था। ये सब अगर हो सका तो इसमें माँ के योगदान को भी कम नहीं आँका जाना चाहिये। शायद उनके सहयोग के बिना पापा के लिये अपने दायित्वों का निर्वहन करना कठिन होता। 

ईमानदारी का आलम ये था कि रेलवे में गुड्स क्लर्क की नौकरी इसलिए छोड़ दी कि मालगोदाम में इस बीमारी का पालन कर पाना मुश्किल लग रहा था। ए जी ऑफिस में ऑडिट का काम किया लेकिन ताउम्र वो दूसरों की ऑडिट ड्यूटी लगाने में ही लगे रहे। हमारे घर में ऑफिस की एक पिन भी अगर नहीं आई है तो इसके पीछे पिता जी की प्रेरणा रही है। झूठ बोलना उन्हें नहीं आता था न ही उन्होंने हमसे कभी झूठ बोलने को कहा। पचास साल की उम्र में मेरी ये धारणा और बलवती हुयी है कि झूठ बोलने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती।

पाँचवीं क्लास में था मेरा बेटा जब उसने स्कूल से लौट के कहा - पापा आप के कारण मेरे दस नंबर कम हो जाते हैं। मैंने पूछा - कैसे? तो वो बोला - मल्टीपल चॉइस और फिल-इन-ब्लैंक प्रश्नों में और बच्चे दूसरों से ताक-झाँक करके नंबर ज़्यादा पा जाते हैं। मैंने समझाया - तुमको मालूम है कि तुम कितना जानते हो जबकि बाकि को अपने बारे में गलतफहमी रहेगी।वो छोटा था इसलिये पिता की बात उस समय उसे समझ आ गयी थी। अब जब उसके जूते मेरे पैरों के लिये बड़े हो गए हैं, शायद वो मुझसे कुछ और प्रश्न करता। उस दिन मैं अन्दर से हिल सा गया, कहीं जाने-अन्जाने मैं अपने मूल्य बच्चों पर थोप तो नहीं रहा हूँ। लेकिन मेरे पिता जी ने भी अपने जीवन-मूल्यों को शब्दों में तो हमें नहीं बताया था।      

मेरे पापा एक साधारण व्यक्ति थे। लेकिन वो एक असाधारण पापा थे, जैसे सबके होते हैं।

- वाणभट्ट 

मंगलवार, 26 अप्रैल 2016

संवेदनशीलता

संवेदनशीलता और भावुकता पर पिछले कुछ दिनों में बहुत कुछ कहा जा चुका है। जो भी उच्च पदों को सुशोभित कर रहे हैं उन्हें संवेदनशील अवश्य होना चाहिये। भावुकता तो संवेदनशीलता का प्रकट रूप है। यदि राजा निस्वार्थ भाव से प्रजा की सेवा करना अपना धर्म समझता हो तो संभव है उससे ज़्यादा दीन-हीन सेवक की कल्पना कर पाना असम्भव हो। राजाओं के अत्याचार और कुशासन से प्रजा को मुक्त करने के लिये प्रजातन्त्र का मॉडल प्रचलित हुआ। प्रजातन्त्र की अवधारणा बहुत ही सीधी और सपाट थी। सरकार जनता की, जनता के द्वारा और जनता के लिये। लेकिन मूलतः बदला तो सिर्फ राजयोग का स्वरुप। पहले सिंहासन खानदानी विरासत थी, अब येन-केन-प्रकारेण सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने की होड़। विनम्रता, समाज-सेवा, देशप्रेम, सदाचार, सुशासन, गरीबी-उन्मूलन, सर्वधर्म-समभाव आदि जन-भावनाओं का प्रतिनिधित्व करने वाला राजनेता जनता के द्वारा चुनने के बाद ख़ुद सरकार बन जाता है। मतगणना किसी व्यक्ति की सामाजिक स्वीकार्यता का प्रमाण तो हो सकती है, लेकिन उसके समाज के प्रति सेवा के सन्कल्प का द्योतक नहीं। कुर्सी मिलने के बाद अमूमन नेता उनसे ही दूर हो जाता है जिन्होंने उसे चुना है। चूँकि नेतागिरी अपने-आप में एक फुलटाइम जॉब है, और जिसने नेता बनने की ठान ही ली है तो उसके पास पढ़ने-पढ़ाने के लिए समय बच जाये ऐसा बिरले ही होता है। अब सरकार चलाने के लिये हर चीज़ के बारे में विस्तृत जानकारी होनी चाहिये। जिस देश में चाकरी करने को आमादा पढ़े-लिखे लोग बहुतायत से उपलब्ध हों वहाँ पढ़ाई करना समय की बरबादी है। इतनी देर में तो काफी लोगों से जनसम्पर्क हो जायेगा, कुछ वोट पक्के हो जायेंगे। सरकार चलाने के लिये तमाम पद बनाए गये और उन पर पढ़े-लिखे लोगों को कारिन्दा रख लिया। जो अच्छा हुआ वो सरकार का किया और जो बुरा वो कारिंदों का। पढ़े-लिखे बेरोज़गार, सरकारी रोज़गार पाने के बाद जल्दी ही ये गुमान पाल लेते हैं कि वो ही सरकार हैं और शीघ्र ही राजरोग से ग्रसित हो जाते हैं। पद पर विराजने के बाद भावुकता और सम्वेदनशीलता की तिलांजलि दिए बिना राजयोग के कुर्सी प्रदत्त अधिकारों का आनन्द ले पाना संभव नहीं है। अक्सर तथाकथित सक्षम-समर्थ लोग इन मानवीय गुणों को व्यक्ति की व्यक्तिगत दुर्बलता मान लेते हैं। 

ये पीड़ा हर उस व्यक्ति की है, जो देश को बुलंदियों पर देखना चाहता हो लेकिन वर्तमान परिस्थितियों में खुद को असहाय पाता हो। मुकदमों का निरन्तर बढते जाना न्यायपालिका को ही कटघरे में खड़ा कर रहा है। न्यायपालिका धन-बल के आगे बेबस नज़र आती है। बिना दांत और नाख़ून के शेर का शिकार कोई भी कर सकता है। कुछ-कुछ वैसा ही हाल है। अपराधी प्रवृत्ति के लोग अपनी जेब में कानून रखते हैं। उन्हें सजा दिलवा पाने की प्रक्रिया इतनी जटिल और लम्बी है कि अंतिम निर्णय से पहले ही पीड़ित व्यक्ति हताश और निराश हो जाता है। अक़्सर कानून की पेंचीदगी का लाभ उठा कर अपराधी मुक्त भी हो जाता है। न्याय कम या अधिक फ़ीस वाले वकीलों के अनुसार बदल जाए तो न्याय कहाँ रहा? और इस व्यवस्था पर विश्वास कर पाना कहाँ तक न्यायोचित है। दिनोदिन बढ़ते मुकदमों के कारण आज न्यायालयों और न्यायाधीशों की कमी महसूस की जाने लगी है। लेकिन समय से मुकदमों के निस्तारण के लिये न्यायधीशों की कमी ही एक मात्र कारण नहीं है। आवश्यकता इस बात पर ध्यान देने की है कि मुकदमों की संख्या में भारी इज़ाफ़े की वजह क्या है। न्याय की आवश्यकता वहीं पड़ती है जहाँ अन्याय हुआ हो। अन्याय बढ़ा है इसलिए मुक़दमों की संख्या बढ़ी है। अन्याय करने वाले अधिकांशतः सक्षम-समर्थ-शक्तिशाली लोग होते हैं। आम आदमी भी अन्याय को अपने सब्र भर सहने के बाद ही कोर्ट-कचहरी के विकल्प को आजमाता है। कोई भी व्यक्ति इन चक्करों से दूर ही रहना चाहता है। इसमें समय-धन-ऊर्जा सभी की हानि है। कुछ लोगों को इसकी ख़ानदानी लत हो सकती है। अमूमन पीड़ित व्यक्ति न्याय के लिये अपनी क्षमता और सामर्थ्य के सारे अवसरों के चुक जाने के बाद न्यायालय की शरण में आता है। इतिहास गवाह है कि सीधे-सच्चे-ईमानदार लोगों का जीवन भ्रष्टाचार-अन्याय-अराजकता से लड़ते बीता है। मुग़लों और अंग्रेज़ों के कार्यकाल में भी कारिंदों ने पूरे राजसी ठाठ का जीवन जिया है। अन्याय और अत्याचार समर्थ लोगों का शगल है।शिक्षण और शिक्षा के विकास के साथ ही लोगों में, देश के प्रति कर्तव्य बोध भले ही न विकसित हुआ हो, लेकिन अधिकार-बोध अवश्य बढ़ा है।

अन्याय और अत्याचार किसी भी देश या देशकाल में कोई नयी या अनोखी घटना नहीं है। इससे बचने के लिये लोगों ने धर्म का छद्म सहारा भी ले कर देखा। कभी लोगों ने भरोसा किया - 'निर्बल के बल राम'। कबीर साहब जी ने भी सशक्तों को समझाने की कोशिश की कि - 


निर्बल को न सताइए, जाकी मोटी हाय।
मरी खाल की सांस से, लोह भसम हो जाय।


इन बातों से ये पता चलता है कि अन्याय-अत्याचार की बीमारी युगों पुरानी है और सदैव दीन-दुर्बल लोग ही इससे पीड़ित रहे। धर्म की शरण में भी उन्हें ही जाना पड़ता था। और वो सारा जीवन इसी उम्मीद में बिता देते थे कि भगवान के रजिस्टर में कर्मों का लेखा दर्ज़ हो रहा है। समय आने पर अन्यायी-आततायी का हिसाब होगा। और इस नहीं तो अगले जन्मों में सत्य और न्याय की स्थापना होगी। पोएटिक जस्टिस। इस विश्वास को ही जीवन का सम्बल बना के बहुत लोग इस भवसागर को तर गये। समय के साथ वैज्ञानिक सोच और समझ विकसित हुयी। लोगों को लगा ये शक्तिशाली लोग धर्म-धन-बल का दुरुपयोग करके बाकि लोगों को नारकीय जीवन जीने को विवश कर देते हैं। आज ज़िन्दगी भी फ़ास्ट फ़ूड की तरह हो गयी है। सब्र का फैक्टर गायब है। इसी जीवन में सबको सब कुछ चाहिये। अगले जन्म की कोई क्यों सोचे। सोते हुये लोगों को दिन-रात जगाने का प्रयत्न ही कुछ लोगों का पूर्णकालिक व्यवसाय बन गया है। इस प्रक्रिया में माल भी कमा लिया तो हर्ज़ क्या है। हम नहीं करेंगे तो दूसरे उनका शोषण कर डालेंगे तो फिर हम ही ये नेक काम क्यों न करें। शोषित-पीड़ित लोगों को न्याय दिलाने में कितनी सरकारें आईं और चली गईं। जिन्हें न्यायपालिका से उम्मीद थी वो तारीखों के चक्कर में पड़ गये, और जिन्हें नहीं थी वो बाबाओं के। हर किसी के जीवन का एक मक़सद तो होना ही चाहिये। इन दोनों ही चक्करों में घर-जमीन-जायदाद का बिक जाना कोई अजूबा नहीं है। न्याय सिद्धांततः जितना सरल है उसका व्याकरण उतना ही कठिन। विधि की मोटी-मोटी किताबों में न्याय का कहीं ग़ुम हो जाना बड़ी बात नहीं लगती। ये बात समझ से परे है कि बड़े और छोटे वकील के होने से न्याय बदल कैसे सकता है। पैसे वाले और ग़रीब के न्याय में अंतर क्यों। आम आदमी सही होकर भी पैसे के अभाव में जेल में जीवन काट दे और अमरुद आदमी गुनाह करके भी बेल पर बाहर खुली हवा का मज़ा लूटे।

वकील और जजों की संख्या बढ़ाना शायद समस्या का समाधान नहीं है। समाधान है सक्षम और सशक्त लोगों को अन्याय करने से रोकना। कार्यपालिका को अधिक संवेदनशील और ज़िम्मेदार बनाने से आम इन्सान के असंतोष में भी कमी अवश्य आयेगी। लचर कानून-व्यवस्था बढ़ते हुये मुकदमों के लिए कुछ हद तक ज़िम्मेदार है। एक व्यक्ति पडोसी की ज़मीन पर कब्ज़ा कर लेता है। न्यायपालिका की भूमिका तो बहुत बाद में आती है। उससे जुड़े सारे विभागों और अफसरों से निराश होने के बाद ही कोई न्यायालय का द्वार खटखटाता है। सरकारी नौकरी में तो और फजीहत है। एक भ्रष्ट अधिकारी अपने अधीनस्थ कर्मचारी का प्रमोशन रोक देता है और तुर्रा ये कि हम सरकार हैं। जाओ कोर्ट, मेरी लड़ाई का खर्च तो विभाग वहन करेगा। चार पेशी में पतलून सरक जायेगी। पुलिस एफआईआर लिखने में कोताही करती है, तफ्तीश में ढिलाई बरतती है, और बलात्कारी चौड़ा हो के घूमता है। या तो पीड़ित आत्महत्या कर ले या न्यायालय की शरण में जाये। क़ानून अपने हाथ में लेने का माद्दा उसमें होता तो शायद अन्यायी-आततायी लोगों में कुछ खौफ होता। गुंडे-मवालियों की संख्या में निश्चय कमी आती। दुबई में एक मित्र ज्वैलरी खरीद रहे थे। नमाज़ का समय हो गया था। दुकानदार ने कहा - आप लोग रुकिये मैं नमाज़ पढ़ के आता हूँ। मित्र ने कौतुहल से पूछा - यदि मैं कुछ सामान पार कर दूँ तो। दूकानदार मुस्कराया, बोला - कर के देख लीजिये। और वो नमाज़ पढ़ने चला गया। उसे मालूम है कि चोर को २४ घण्टे में सज़ा मिल जायेगी। धर्म-भीरु समाज में कभी लोगों को डर था कि भगवान देख रहा है। आज सीसीटीवी फुटेज को बड़े आराम से डॉक्टर्ड बता कर दसियों साल मुकदमें में निकले जा सकते हैं। न्याय प्रणाली सम्भवतः भ्रष्टाचारियों-अन्यायियों में वो ख़ौफ़ पैदा करने में अक्षम रही है कि सक्षम-शक्तिशाली अन्याय करने से पहले दस बार सोचे की इसका अंजाम क्या होगा। ये समय किसी दूसरे में दोष खोजने का नहीं है।  ये समय है आत्मनिरीक्षण का। कम से कम हम स्वयं किसी पर अन्याय ना करें। व्यक्तिगत आकांक्षाओं के कारण यदि न्याय का साथ न दे सकें तो कम से कम अन्यायी का तिरस्कार तो करें। समय है कार्यपालिका को और जवाबदेह बनने की ताकि अन्याय न हो और यदाकदा अन्जाने में अन्याय हो भी जाए तो निष्पक्ष न्याय एक मिसाल बने, नज़ीर बने। इसके बिना अगर मुकदमें बढ़ते जाएँ तो यक़ीन मानिये दुनिया के सारे जज और सारी अदालतें मिल कर भी निरन्तर बढ़ते लम्बित मुकदमों को निपटा पायेंगी संभव नहीं है।        

ये सब लिखना शायद बहुत आसान है और कर पाना मुश्किल। किन्तु किसी उच्चपदस्थ व्यक्ति के आंसुओं ने देश को झकझोरा तो। ऐसे संवेदनशील और भावुक हृदय को हृदय से प्रणाम। 

- वाणभट्ट 

रविवार, 17 अप्रैल 2016

आध्यात्मिकता

आध्यात्मिकता

उन्हें एकाएक लगने लगा कि अब उन्हें आध्यात्मिक हो जाना चाहिये। उम्र पचास पार कर चुकी थी। ब्लॅड प्रेशर और डॉयबिटीज की दस्तक सुनाई देने लगी थी। दारु-मुर्गा-अंडा डॉक्टर ने मना कर दिया। एक दौर वो भी था जब वो शाकाहार को घासाहार का पर्याय मानते थे। मुश्किल से मिला मानव जीवन व्यर्थ न चला जाये इसलिये हर चीज़ जिसे तथाकथित संस्कारी लोग रिकमेंड करते थे, उन्होंने रिजेक्ट करना श्रेयस्कर समझा। व्यायाम-योग-ध्यान को बीमारी का इलाज मानने से उन्हें कोई परहेज़ न था। पूजा-पाठ उनके लिये 'हारे को हरि नाम' कहावत को चरितार्थ करता। इस मानव जीवन की यही विडम्बना है कि जब जवानी चढ़ रही होती है तो लगता है बुढ़ापा तो सिर्फ दूसरों को आना है। भगवान द्वारा प्रदत्त सभी इन्दिर्यों में ज़ुबान का बहुत महत्त्व है। ये जो न कराये वो कम। स्वाद का मजा तो ये लेती है और नतीजा बाकि शरीर को भुगतना पड़ता है। करे कोई और भरे कोई। वर्मा जी को जब डॉक्टर ने पहली बार चेताया था तब उन्हें लगा वो खामख्वाह डरा रहा है। लेकिन अब शरीर ही बोलने लगा तो मौका भी बन गया और दस्तूर भी। छत्तीस चूहे खा के जब बिलैया हज जा सकती है तो उनके लिए भी गंगा में डुबकी लगाना कहाँ मना था। इस देश में जन्म ले कर जो धर्म और अध्यात्म से अछूता रह गया उसका अवतरण अकारथ ही गया। वर्मा जी के जीवन में एक नए फेज का आरम्भ होने को था।  

जब सब खान-पान छूट ही गया, संयमित जीवन शैली की मज़बूरी के कारण उनकी स्थिति 'अब जी के क्या करेंगे' टाइप की हो रही थी। लेकिन उनके पास जीने की कुछ वजहें भीं थीं। एक सुंदर-सुशील पत्नी, जो वर्मा जी की ख़ुशी को अपनी नियति मान कर खुश थी। दो प्यारे बच्चे और उनकी परवरिश को एक रसूख और मलाईदार पद। इन सबके होते हुये उन्हें कभी भगवान की याद आई हो ऐसा याद नहीं आता। मन में कहीं ये विश्वास था कि भगवान की ज़रूरत कमज़ोर और असहाय लोगों को पड़ती है। उन्हें शायद भगवान की ज़रूरत ही न पड़े। लेकिन प्रभु की लीला लॉ ऑफ़ एवरेज पर चलती है। सुख-दुःख का सम-टोटल आरम्भ और अंत में है, जीरो बटा सन्नाटा। सारी कबड्डी बीच की है। ऊपर वाला अपनी बात बन्दों के माध्यम से कहलाता है। डॉक्टर ने इशारा कर दिया था। वर्मा जी भी इरादे के पक्के थे। जीवन में जब इतना सब छोड़ना था तो कुछ तो पकड़ना ही था। उन्होंने किसी योग गुरु की शरण में जाने का निर्णय ले लिया। अब बस कमी थी तो एक अदद गुरु की जो महर्षि पतंजलि की योग विद्या का सार उन्हें सहज-सुलभ तरीके से उपलब्ध करा सके। इस देश का सौभाग्य रहा है कि यहाँ की पवित्र धरती पर गुरुओं और गुरुघंटालों की कभी भी कोई कमी नहीं रही है। समस्या है आम आदमी के लिये जो इन दोनों में फर्क नहीं कर पाता। पहले दर -दर भटकना पड़ता था, घाट-घाट का पानी पीना पड़ता था तब जा के पता चलता था गुरु, गुरु है या घंटाल।टीवी पर बहुत से धार्मिक चैनेल्स के आ जाने से ये काम थोड़ा आसान हो गया है। जिस गुरु की टीआरपी ज्यादा हो उसी को पकड़ लो। लोकतंत्र वैसे भी संख्याबल पर निर्भर करता है। जिसके ज्यादा अनुयायी हैं उसे फॉलो करो। एक ऐसे बाबा को खोज पाना अब कठिन काम नहीं था।

उनके 'योगा' सेंटर लगभग हर शहर, हर मोहल्ले में उपलब्ध थे। वर्मा जी ने बाबा जी के लोकल चैप्टर में रजिस्ट्रेशन करा लिया। केंद्र का परिवेश और वातावरण अध्यात्म से ओत-प्रोत था। सभी भक्तगण सप्ताह में एक दिन नियत समय पर एकत्र होते और साथ-साथ योग-ध्यान करते। केंद्र संचालक के कहने पर वर्मा जी ने मुख्य केन्द्र पर 15 दिन का क्रैश कोर्स भी कर डाला। अब वो माइक्रोसॉफ्ट सर्टिफाइड इंजीनियर्स की तरह सर्टिफाइड रूप से आध्यात्मिक हो गए थे। वर्मा जी बहुत ही रेगुलर और पंक्चुअल थे। नए मुल्ले वाला हाल था। उनके जीवन का कायाकल्प हो गया। लेकिन अफ़सोस इस बात का था कि वो आध्यात्मिक हो गये ये बात सिर्फ खुद वो जानते थे। इतने जतन से कोई आध्यात्मिक बने और पडोसी को हवा भी न लगे तो मज़ा नहीं आता। दूसरे उन्हें अभी भी पुराने नज़रिये से देखते। पुराने यार-दोस्त उनके त्याग का मज़ाक उड़ाते। इंसान भी अपना सारा जीवन दूसरों को देखने-दिखाने में ही गुज़ार देता है। लोगों का नजरिया बदलने के लिये उन्होंने भी वही करना शुरू कर दिया जो और लोग किया करते थे। गुरु जी की एक बड़ी फोटो घर के मुख्यद्वार पर लटका दी और सोने की चेन हटा कर एक रुद्राक्ष की माला अपने गले में टांग ली। ब्राण्डेड कपड़े सिर्फ ऑफिस के लिये, बाकि समय वर्मा जी ने सफ़ेद कुर्ता-पायजामा धारण कर लिया। रही सही कसर माथे पर लगे टीके ने पूरी कर दी। अब उन्हें खुद लगने लगा कि वो पूरी तरह आध्यात्मिक हो गए हैं। उन्हें उम्मीद थी कि अब दूसरे भी उन्हें हलके में नहीं लेंगे।  

आध्यात्मिकता की शुरुआत शायद यहीं से होती है। वेशभूषा देखते ही ये लगना चाहिए कि बन्दा स्पिरिचुअल टाइप का है। बहुत से लोग तो दूसरों को देखने-दिखाने में ही आध्यात्मिक बन गये। विगत कुछ वर्षों में ये देश भयंकर रूप से स्पिरिचुअलिटी की चपेट में आ गया है। नए-नए धर्मों-पंथों-गुरुओं-देवी-देवताओं का अनवरत आविर्भाव हो रहा है। हर कोई अपनी पूजा-पद्यति के दिखावे के लिये हर संभव प्रयत्न कर रहा है। टीका-टोपी-दाढ़ी-वेशभूषा सिर्फ इसलिये कि लोगों को पता चल सके कि भाई धार्मिक हो गया है। आध्यात्मिक व्यक्ति जिस पूजा पद्यति को अपनाता है अमूमन उसी को धर्म मान लेता है। इसलिए धर्म और अध्यात्म आपस में वैसे ही घुल-मिल गए हैं जैसे दूध और पानी। दोनों ही एक दूसरे में मिलावट। आदमी अपनी सुविधा के अनुसार दोनों की मात्रा घटा-बढ़ा लेता है। लेकिन धर्म और आध्यात्मिकता दोनों अटल सत्य की तरह हैं। पूजा-पद्यति या देश-काल के बदल जाने से इनमें कोई फर्क नहीं पड़ता। प्रेम-दया-करुणा-क्षमा, धर्म की धुरी हैं जबकि आध्यात्मिकता को धर्म-फल यानि शान्ति और परमानन्द के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। हमारे देश के लिए आध्यात्मिकता कोई नई चीज़ नहीं है। हर जिले, हर गांव, हर कस्बे यहाँ तक की हर गली-मोहल्ले में हर तीसरा आदमी धार्मिक मिल जाएगा। हर दूसरा आदमी जो धार्मिक तो नहीं होगा लेकिन कर्म-कांड ज़रूर जानता होगा। और हर पहला आदमी कर्म-कांड को ही धर्म समझ कर उसे पाखण्ड सिद्ध करने में लगा होगा। हमारे देश का एक व्यक्ति जो सभ्य नागरिक भले न बन पाया हो धर्म के बारे में खुद को अज्ञानी नहीं मान सकता। जिस देश में कोस-कोस पर पानी बदल जाता हो वहाँ हर गली में देवी-देवताओं-ऋषि-मुनियों-गुरुओं-पीर-पैगम्बरों का बदल जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। कोई भी व्यक्ति जो सौ-पचास पढ़-अनपढ़ को हाँक ले उसमें महानता के गुण परिलक्षित होने लगते हैं। शुरुआत तो चेलागिरी से होती है लेकिन कब चेला गुरु का गुड़-गोबर कर के शक्कर बन जाये, पता नहीं चलता। आरम्भ में बाहर फोटो गुरु की ही होती है और दुकान चेले की, बाद में गुरु नेपथ्य में चले जाते हैं। बेरोजगारों के लिए स्वरोजगार एक उत्कृष्ट उदाहरण है, ये बाबागिरी।         

जहाँ हर कोई भूतकाल में अपने साथ हुये अन्याय और असहिष्णुता की सलीब ढ़ो रहा हो, न्याय-व्यवस्था फाइलों में दम तोड़ रही हो, मानवता-सज्जनता-सभ्यता सिर्फ फेसबुक और व्हाट्सप्प पर दिखाई देती हो, वहाँ रियल वर्ल्ड में कोई सिर्फ रोने के लिए अपना कन्धा ही दे-दे तो सौ-पचास लोग अपना सर्वस्व न्योछावर करने को उद्दत हो ही जाएंगे। सामाजिक और आर्थिक विषमताओं को दूर करने की सद्इच्छा में आपके महान और संपन्न होने का समय-सिद्ध नुस्खा छिपा है। समृद्ध और संपन्न सदैव अल्प संख्या में ही होते हैं । ऐसे ही कुछ अल्पसंख्यक संपन्न लोगो को भरे चौराहे पर पानी पी-पी के कोसना आपकी आर्थिक सम्पन्नता के द्वार खोल सकता है। भारतीय राजनीति और सिनेमा इस बात के प्रमाण हैं। हिन्दी सिनेमा को हिट करने में दूसरों की गरीबी-दुःख-दर्द को दूर करने वाले रॉबिनहुड टाइप के किताबी मसीहा वास्तविक जीवन में सुपरस्टार बन गये। धर्म और अध्यात्म की आवश्यकता सुविधा और साधन विहीन विकासशील देशों में विकसित देशों की अपेक्षा अधिक रही है। 'परित्राणाय साधुनां विनाशाय च दुष्कृताम' की महती भावना हृदय में लिये अनेकानेक महान लोगों ने समस्त विश्व में भारत की पावन धरा को ही चुना ये अपने आप में गर्व का विषय है। 

धर्म और आध्यात्मिकता का दिखावा आजकल अपने चरम पर है। हर धर्म-सम्प्रदाय के लोगों द्वारा अपने-अपने महापुरुषों को महान बताने की होड़ में देश कहीं पिछड़ता जा रहा है। महान लोगों का अनुयायी होने के कारण अनुयायी स्वयं को भी महान मानने लग जाये, ये संभव है। शहरों, मोहल्लों, चौराहों का नया नामकरण हो रहा है। नित्य प्रति गली-मोहल्लों-पार्कों में मूर्तियों की स्थापना में फ्री का लंगर लग रहा है। तीज-त्यौहार जो पहले घरों में सीमित थे, आज ड्योढ़ी के बाहर निकल आये हैं। हर सम्प्रदाय अपने-अपने समारोहों में जनशक्ति और धार्मिकता का फूहड़-भौंडा प्रदर्शन करने से बाज नहीं आता। धार्मिक आयोजनों के शोर में धर्म-अध्यात्म गौण हो कर रह गए हैं। आये दिन धर्म परिवर्तन की ख़बरें सुर्खियां बन रहीं हैं। परिवर्तन का कारण आर्थिक, राजनितिक या सामाजिक कुछ भी हो सकता है। कुछ लोगों की धार्मिक आस्था मात्र वैधानिक रूप से दूसरी बीवी के लिए भी बदल जाती है। सम्प्रदाय बदलना सम्भवतः स्वयं को बदलने से ज़्यादा आसान है। इससे पूजा पद्यति तो बदल सकती है, लेकिन धर्म जो शाश्वत सत्य है, नहीं। उसे भला कौन बदल सकता है।भगवान बुध्द के एक अनुयायी ने अपनी पुस्तक में लिखा था कि जब-जब समाज में अन्धकार बढ़ा, महापुरुषों ने मशाल बन कर पथप्रदर्शक का काम किया। एक मशाल से अनगिनत मशाल जलाई जा सकतीं हैं। जलने के बाद, पहली हो या आखिरी, हर मशाल गुण-धर्म के मामले में सामान हो जातीं हैं। अब जब उन मशालों को बुझे हुए अरसा बीत गया है, तब लड़ाई हो रही है कि मेरी मशाल का डंडा तुम्हारे डंडे से बड़ा और ज्यादा मजबूत है। और अनुयायी लोग स्वयं में महान लोगों के गुण विकसित करने के बजाय उनकी फोटो या मूर्ति से सन्तुष्ट हो जाते हैं। वाह्य आडम्बर और दिखावे ने धर्म का स्वरुप बदल दिया है। ऊपर भगवान तक आवाज़ पहुँचाने के लिये अत्याधुनिक तकनीकें हैं। धर्म जो कभी व्यक्तिगत एकाकी अनुभूति थी, भीड़-तन्त्र में बदल गया है। 

हर किसी को अपने स्तर पर देर-सवेर शुरुआत करनी होती है। कारण चाहे ऊपर वाले की पिछवाड़े पर पड़ी लात हो, शारीरिक स्वास्थ्य हो या उम्र का तक़ाज़ा। वर्मा जी ने मज़बूरी में ही सही शुरुआत कर दी है, भले ही दिखावे से। बिज बो दिया है, समय आने पर अध्यात्म के अंकुर भी अवश्य फूटेगा। वर्मा जी को शुभकामनायें। लेकिन भगवान को सूखे-मुरझाये फूल कोई अर्पित करता है क्या? नहीं न। फिर धर्म-अध्यात्म के लिए बुढ़ापे का इंतज़ार क्यूँ? 

धर्म की एक सीधी-सच्ची परिभाषा गोस्वामी तुलसीदास जी ने दी थी -
"परहित सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई।"

किसी शायर ने भी ये बात बखूबी कही है -
"आदमी लाख सम्हलने पर भी गिरता है,
जो झुक के उठा ले, वो ख़ुदा होता है। "

आज के लिए इतना ही। कुछ ज़्यादा हो गया।      

- वाणभट्ट 




                       

गुरुवार, 24 मार्च 2016

पूर्णाहुति

पूर्णाहुति 


पंडित जी तैयारी में लगे ही थे जब लोगों ने आना शुरू कर  दिया। अमूमन हम लोग समय के पाबंद कम होते हैं। और यही उम्मीद पण्डित जी से भी थी। लेकिन आर्य समाजी पंडित नियत समय से ठीक पांच मिनट पहले पहुँच गए। समय बदल भी गया है। पहले परिवार के लोग किसी के अंतिम कार्य में आते थे तो दसवाँ-तेरही निपटा के ही जाते थे। आशय सम्भवतः शोक-संतप्त परिवार को हुयी क्षति के दुःख को कम करना रहा होगा। लेकिन आज न तो घर वालों के पास समय है न बाहर वालों के पास। सनातनी कर्म-काण्ड की जटिलता के कारण भी आर्य-समाजी या गायत्री पद्यति का प्रचलन बढ़ा है। शादी-विवाह में मामला लेन-देन, शुभ-अशुभ का होता है इसलिए कितने ही असहज सनातनी रीति-रिवाज़ों का पालन लोग ख़ुशी-ख़ुशी करने को तैयार हो जाते हैं। शायद इसी सुविधा का नाम हमारा उदार धर्म है। जिसकी मर्ज़ी, जैसी इच्छा तोड़ लो, मरोड़ लो, लेकिन धर्म शाश्वत सत्य की तरह न बदलता है न बिगड़ता है। आजकल की आम बोलचाल की भाषा में इसे सहिष्णुता भी कह सकते हैं। सब लोग अपने-अपने काम-धंधे पर शीघ्र पहुँच सकें इसलिए तीन दिन बाद शांति-पाठ कर लेना आज सुविधा से ज़्यादा आवश्यकता बन गया है। ऐसा नहीं है कि दिवंगत आत्मा के प्रति कोई असम्मान या अनादर की बात है। बस सबका रोना है समय का न होना। 

"जो लोग बाहर बैठे पॉलिटिक्स बतिया रहे हैं उन्हें भीतर बुला लीजिए। ताकि उन्हें मालूम हो कि शांति पाठ में आये हैं, सतनारायण बाबा की कथा में नहीं।" पंडित जी की आवाज़ में न तो व्यंग का भाव था, न ही कोई तल्खी। बस बात कह दी। अंदर जगह कम थी लेकिन किसी तरह फंस-फंसा के लोग बैठ गये। पंडित जी ने शांति-पाठ आरम्भ कर दिया। मृत आत्मा की शांति के श्लोकों के साथ ही साथ मर्त्यलोक में इस पाठ को सुनने वाले हम लोगों के लिए भी सन्देश देते रहे। 

इस धरती पर सबसे बड़ा भाग्य है मनुष्य के रूप में हमारा जन्म। हमें जन्म देने वाला ईश्वर सब जगह विद्यमान है। सब जानता है। सब देख रहा है। हमारे सभी कर्मों का लेखा-जोखा रखना उसका ही काम है। कर्म का नियम भी न्यारा है। कर्म करने की पूर्ण स्वतंत्रता है हम को। हम ज्ञान और विवेक से संपन्न हैं। क्या करणीय है और क्या अकरणीय ये भगवान की आवाज़, हमारी अंतरात्मा, हमें बताती रहती है, हमें सचेत करती रहती है। किन्तु माया का प्रभाव ऐसा है कि मनुष्य का भ्रमित हो जाना हर पल संभव है। यहीं पर विवेक काम आता है। हम एक मुक्त आत्मा हैं। पूर्णतः स्वतन्त्र। लेकिन केवल कर्म करने तक। कर्म का फल भोगने के लिए स्वतन्त्र नहीं हैं। कर्मफल सदैव कर्म के पीछे-पीछे चलता है और अवश्य फलीभूत होता है। हम उसे चाहें या न चाहें। जीवन की परिस्थितियां एक प्रश्नपत्र की तरह हैं। भगवान एक निरीक्षक के रूप में हमारे आस-पास उपस्थित है। वो हमारी कॉपी (मस्तिष्क के विचारों) में झाँक के देख भी सकता है। लेकिन हम सही लिख रहे हैं या गलत बोलता नहीं है। लेकिन जब वो उत्तर पुस्तिका जांचने बैठता है तो सही उत्तर को सही और गलत उत्तर को गलत मानता है। ईश्वर के न्याय में अंक नहीं मिलते कि दस प्रश्नों में छः सही और चार गलत तो ६०% अंक आ गये। यहाँ सब के सब सिर्फ पास होते हैं सारा सही करने वाला भी और सारा गलत करने वाला भी। सही काम का सही फल और गलत का गलत फल मिलता है। धर्मराज युधिष्ठिर ने सदैव धर्म और मर्यादा का पालन किया जिस कारण वो सशरीर स्वर्ग पहुँचने के अधिकारी भी बने। किन्तु एक झूठ के कारण वो नर्क से हो कर ही स्वर्ग पहुँच सके। समापन हवन से होना था।  

धीरे-धीरे धुआँ कमरे में बढ़ रहा था। धुआँ आँखों के रास्ते मस्तिष्क पर छाता जा रहा था। जब तक पूर्णाहुति होती दिल और दिमाग में हर तरफ धुंध थी। कुछ भी सुनाई और दिखाई नहीं दे रहा था। नहीं, सुनाई और दिखाई दे रहा था, पर समझ नहीं आ रहा था। यही माया है। सब भुला देती है। अच्छा भी और बुरा भी। 

प्रसाद वितरण के साथ लोगों को राजनीति पर विचार-विमर्श का मौका मिल गया था। अब सब स्वतन्त्र थे। पूर्णाहुति जो हो चुकी थी।

- वाणभट्ट     

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