रविवार, 19 जून 2016

मेरे पापा

मेरे पापा 

मेरे पापा वैसे ही थे जैसे अमूमन सबके पापा होते हैं। कोई ख़ास बात नहीं थी। देखने में एक आम आदमी से लगते थे। बेहद साधारण से। फिर भी उनकी एक बात उनको बहुत असाधारण और ख़ास बनाती थी कि वो मेरे पिता थे। मेरे कहना थोड़ा गलत होगा। हमारे पिता ज़्यादा उपयुक्त है। हम दो भाइयों के पिता। उस ज़माने में जब चार-छः बच्चे होना अजूबा नहीं लगता था। दो बच्चों पर सीमित हो जाना ये दिखाता है कि बच्चों के समुचित भरण-पोषण को लेकर वो कितने संवेदनशील थे। हमारे पिता जी हमारे लिये वैसे ही ख़ास थे जैसे सबके लिये सबके पापा। 

माँ शादी बाद ही अपनी पढ़ाई जारी रखने की सदइच्छा व्यक्त कर  चुकी थीं। बीए-एमए-एलटी के बाद शिक्षण कार्य कर पाना शायद पिता जी के सहयोग के बिना सम्भव नहीं था। जिसने खुद इलाहाबाद के बंगलों के आउटहाउस में रह कर और ट्यूशन्स करके पढ़ाई की हो उसको शिक्षा का महत्त्व बताने की आवश्यकता नहीं थी। उस समय बच्चे घर के कामों में सहयोग अवश्य किया करते थे। गेहूँ पिसाना-दूध लाना-सब्जी लाना ये तीसरी-चौथी कक्षा तक हर बच्चा सीख ही लेता था। इनसे बचने का पढ़ाई एक मात्र बहाना हुआ करता था। अगर आप पढ़ने के लिये बैठ गये हैं तो पापा फिर किसी भी काम के लिये उठने को नहीं कहेंगे। हमारी ये चाल हमेशा कामयाब रही। 

ज़िम्मेदारियाँ ओढ़ना उन्हें बखूबी आता था। चाहे गाँव से भाइयों-बहनों को शहर ला के पढ़ाना हो, या उनकी नौकरी-शादी करानी हो या दादी की देख-भाल हो। अपने कर्तव्य पथ से हटना उन्होंने नहीं सीखा था। ये सब अगर हो सका तो इसमें माँ के योगदान को भी कम नहीं आँका जाना चाहिये। शायद उनके सहयोग के बिना पापा के लिये अपने दायित्वों का निर्वहन करना कठिन होता। 

ईमानदारी का आलम ये था कि रेलवे में गुड्स क्लर्क की नौकरी इसलिए छोड़ दी कि मालगोदाम में इस बीमारी का पालन कर पाना मुश्किल लग रहा था। ए जी ऑफिस में ऑडिट का काम किया लेकिन ताउम्र वो दूसरों की ऑडिट ड्यूटी लगाने में ही लगे रहे। हमारे घर में ऑफिस की एक पिन भी अगर नहीं आई है तो इसके पीछे पिता जी की प्रेरणा रही है। झूठ बोलना उन्हें नहीं आता था न ही उन्होंने हमसे कभी झूठ बोलने को कहा। पचास साल की उम्र में मेरी ये धारणा और बलवती हुयी है कि झूठ बोलने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती।

पाँचवीं क्लास में था मेरा बेटा जब उसने स्कूल से लौट के कहा - पापा आप के कारण मेरे दस नंबर कम हो जाते हैं। मैंने पूछा - कैसे? तो वो बोला - मल्टीपल चॉइस और फिल-इन-ब्लैंक प्रश्नों में और बच्चे दूसरों से ताक-झाँक करके नंबर ज़्यादा पा जाते हैं। मैंने समझाया - तुमको मालूम है कि तुम कितना जानते हो जबकि बाकि को अपने बारे में गलतफहमी रहेगी।वो छोटा था इसलिये पिता की बात उस समय उसे समझ आ गयी थी। अब जब उसके जूते मेरे पैरों के लिये बड़े हो गए हैं, शायद वो मुझसे कुछ और प्रश्न करता। उस दिन मैं अन्दर से हिल सा गया, कहीं जाने-अन्जाने मैं अपने मूल्य बच्चों पर थोप तो नहीं रहा हूँ। लेकिन मेरे पिता जी ने भी अपने जीवन-मूल्यों को शब्दों में तो हमें नहीं बताया था।      

मेरे पापा एक साधारण व्यक्ति थे। लेकिन वो एक असाधारण पापा थे, जैसे सबके होते हैं।

- वाणभट्ट 

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