रविवार, 4 नवंबर 2018

और जेब कट गयी

और जेब कट गयी 

ये त्यौहार भी खूब आते हैं। और जब आते हैं तो अपने साथ लाते हैं नई-नई रंगत। जिसका साल भर इन्तज़ार करने का अपना मज़ा है। लेकिन इसका बुख़ार दिल-ओ-दिमाग़ पर इस क़दर हावी हो जाता है कि जो लोग कल तक मँहगाई का मर्सिया पढ़ते नहीं थक रहे थे, वो पूरे शहर की पार्किंग और सडकों को चोक किये घूम रहे हैं। धनतेरस बाद अख़बार की हेड लाइन कोई आज भी बता सकता है। कानपुर ने धनतेरस के दिन स्वर्ण आभूषण खरीद का नया कीर्तिमान बनाया। करोड़ों रुपये जुए-पटाखों में फूँक कर, परीवा के दिन से फिर साल भर के लिये राग-दरिद्दर शुरू हो जायेगा। 

जब से साल भर नये कपड़े खरीदे जाने लगे, तब से त्योहारों पर खरीददारी बस एक शगुन सा बन गया है। त्यौहार है तो उल्लास दिखना चाहिये। लेकिन अब दिखने से ज़्यादा दिखाने का चलन है। इसलिये त्यौहार दिखाने की प्रवृत्ति में हुयी बढ़ोत्तरी दिन-दूनी रात-चौगुनी प्रगति कर रही है। लोग तो बहाने खोज रहे हैं। होली एक ऐसा त्यौहार है जो अमीर-गरीब के फासले को कम कर देता है। अमीर विदेशी लेगा तो गरीब देसी। और लेने के बाद क्या राजा क्या रंक। पूरा साम्यवाद। इसलिये दीपावली को लक्ष्मी जी को सुपुर्द कर दिया गया है। अब जो चूके तो दिखाने का मौका साल भर बाद मिलेगा। कौन दिवाली रोज़-रोज़ आती है। अब जेब कटे तो कटे। 

परिवार से विमर्श किया गया कि जब साल के तीन सौ पैंसठ दिन नवधनाढ्य लोग अपनी इम्पोर्टेड गाड़ियों से सडकों को जाम किये रहते हैं, (आप इसे लेखक का काम्प्लेक्स भी मान सकते हैं।), तो धनतेरस के शुभ अवसर पर और बुरा हाल हो सकता है। त्यौहार पर, जनसँख्या विस्फोट के कारण यदि एक चौथाई प्राणी भी घर से निकल आये, तो जाम की स्थिति तो बन ही जायेगी। हाँ, जाम की स्थिति में ये बड़ी-बड़ी गाड़ी वाले लोग हॉर्न और डिपर ऐसे मारते हैं जैसे टीलीली...ली करके चिढ़ा रहे हों। शहर में हाई बीम पर चलने और बेवज़ह हौंक करने वालों का तो चालान होना चाहिये। लेकिन भ्रष्टाचार के विरुद्ध सरकारें ऐसा कोई कदम उठाना नहीं चाहतीं, जिससे सरकारी नुमाइंदों को भ्रष्टाचार करने का और मौका मिले। घर वालों से मशविरा किया तो समझ आया कि समझदारी इसी में है कि मंडे को धनतेरस की शॉपिंग शनिवार को ही निपटा दी जाये। संडे साफ़-सफ़ाई और बिजली की झालर लगाने को मिल जायेगा। शादी के पच्चीस साल होते-होते पति वैसे भी ट्रांसपोर्टर (फिल्म वाला ) बन कर ही रह गया है।

इसमें किसी को शक़ नहीं होना चाहिये कि इस देश में समझदारों की कभी कोई कमी नहीं रही है। यदि बेवकूफ होते तो दो दिन में देश आज़ाद हो गया होता। तीस करोड़ हिन्दुस्तानियों के आगे एक-दो लाख फ़िरंगी दो दिन न टिकते। लेकिन यहाँ तो विपक्षी टीम को पदा-पदा के थकाने में मज़ा आता है। इसलिये मैच को जितना स्पोर्टिंग स्पिरिट से हम लेते हैं, दुनिया के और देश ले ही नहीं सकते। जीतने से ज़्यादा हम खेलने के लिये खेलते हैं। अगर मैच ख़त्म हो गया तो टाइम काटने की दिक्कत होगी। इसीलिये क्रिकेट के सारे फॉर्मैट हमने जिला के रखे हैं। टी-टवेंटी के ज़माने में यदि समय है तो टेस्ट मैच का भी आनन्द उठाइये। ससुर अंग्रेजवन को इतना झेलाया भाई, कि ख़ुद ही बाय-बाय कह कर भाग गये। 

स्मार्ट सिटी बनाने का काम भी इसीलिये नहीं हो पा रहा है। या तो लोग स्मार्ट होंगे या सिटी। स्मार्ट लोग खलनायक अजित की मोना डार्लिंग की तरह हुआ करते हैं। अपने फ़ायदे के लिये नियम-क़ानून को ताक पर रखने वाले। और स्मार्ट सिटी के लिये आवश्यक हैं नियम-क़ानून का पालन करने वाले लोग। अब ऐसे में विपक्ष सरकार की नियत पर शक़ करें तो शक़ होना लाज़मी है कि कुछ तो गड़बड़ है...दया। ये सीआईडी वालों ने इतना पका रखा है कि कहीं गड़बड़ हो, दया की याद तो आनी ही है। 

इतनी रामायण का आशय ये सिर्फ इतना समझाने के लिये था कि सिर्फ़ हम ही समझदार नहीं हैं। पूरा का पूरा कानपुर ही स्मार्ट है। सड़क पर जाम की शुरुआत देख कर अपनी छोटी सी तथाकथित गाड़ी को थोड़े लम्बे रूट की ओर मोड़ दिया। लेकिन चाहे पतंगा कितना बड़ा-बड़ा चक्कर काट ले गति तो शम्मा के पास जाने से ही मिलेगी। आउटर रूट से होते हुये जब लगा कि गंतव्य पास आ गया है तो भीतर की ओर घुसना आरम्भ कर दिया। जल्द समझ आ गया कि मैच लम्बा होने वाला है। 

हिन्दुस्तान में निकम्मे से निकम्मे आदमी के लिये बीवियाँ भड़ास निकालने का सबसे उचित और सुरक्षित माध्यम हैं। कहीं और भड़ास निकलने की गुंजाईश ही नहीं है। बॉस है कि बस बोलता रहता है और सबऑर्डिनेट है कि सुनता ही नहीं। यारी-दोस्ती तो देखने-दिखाने के चक्कर में खत्म हो गयी। अकेले हम-अकेले तुम में ग़नीमत ये रही कि हम में पति-पत्नी और कुछ दूर तक बच्चे रह गये। यदि दोनों में से एक भी कम सहिष्णु रहा तो, भगवान दूसरे के फटे में टांग न अड़वाये, लालू के सुपुत्तर वाला हाल होता। "लिस्ट बना के दे देती तो मै स्कूटर से सब सामान ले आता। अब जाम में फँसवा दिया। झेलो"। 

पत्नियों के सिक्स्थ सेन्स की दाद देनी चाहिये ये अच्छी तरह से जानती हैं कि कब, कहाँ और कैसे बदला लेना है। जानतीं हैं कि जाम में फँसे ड्राइवर को उकसाना ठीक नहीं। कार पर एक खरोंच और बढ़ जायेगी। मौका आया है तो बिन माँगी सलाह भी देता चलूँ। जीएसटी और नोटबंदी के बाद से किसी व्यापारी से भी बहस न करें। वो कैश माँगे तो कैश दें। वो रसीद देने से मना करे तो मान जायें। उन्हें जूते के बदले समोसा बेचने की सलाह तो कतई न दें। उन्हें पता होता कि बिना टैक्स के समोसे में कितना मुनाफ़ा है तो यक़ीन मानिये सारे उद्योगपति आज पकौड़ा तल रहे होते।         

कुर्सी पर बैठने के लिये लड़के ने अपनी स्किन टाइट जींस से खींच-खाँच के, आड़े-तिरछे हो कर, साढ़े सात इंच का 'किसका बजा' वाला मोबाइल निकाल के मेज़ पर रख दिया। बेफ़िक्री से इधर-उधर देख के मेरे पास आया और बड़ी बेअदबी से कहा "अंकल ज़रा पेन देना"। सब्र की भी हद होती है। "ऐसा कैसे हो सकता है कि कोई बैंक आये और पेन न लाये। इतना बड़ा मोबाईल ला सकते हो और पेन के लिये जगह नहीं है। बैंक आ रहे हो और पेन माँग रहे हो"। कुछ सुबह से कोई मिला नहीं था और कुछ अपने बच्चे के भी दोनों कान खुले रहने के कारण दूसरों को समझाने में आवाज़ ऊँची हो जाती है। अब लड़के अपने संस्कार और अपनी तमीज़ का परिचय दिया। "सॉरी अंकल अगली बार ले कर आऊँगा"। बच्चे ने सॉरी कह कर मेरे प्रवचन पिलाने के इरादे पर पानी फेर दिया। मैंने ग़ौर किया उसकी टी-शर्ट्स में जेब नहीं थी। बच्चे तो बच्चे हैं क्या अपने क्या पराये। मै मुस्कराया क्योंकि मेरा बेटा भी इसी दौर का है। दरअसल आजकल पता नहीं कौन सा ट्रेंड चल गया है कम्पनियों ने टी-शर्ट्स में जेब लगाना बंद कर दिया है। मेरी चिन्ता बस यही रहती है कि पेन और मोबाईल आख़िर कहाँ रखें। इस वज़ह से मै नयी टी-शर्ट्स नहीं ले पा रहा हूँ। 

महिलाओं की वेशभूषा में यही कमी खटकती है। साड़ी हो या सलवार-सूट, जेब नहीं होती। इसीलिये पैसा और मोबाइल रखने के लिये उन्हें पर्स या बैग के रूप में अतिरिक्त एक्सेसरी ढ़ोनी पड़ती है। चाहे-अनचाहे ये उनके फ़ैशन या ड्रेसिंग सेन्स का हिस्सा बन चुका है। और शायद इसीलिये अपनी ख्वाइशों की ज़िन्दगी जीने को बेताब मोटरसाइकिल सवार उचक्कों के लिये वो सॉफ्ट टारगेट बन जातीं हैं। बैग में कुछ नहीं तो मोबाइल और पैसा तो मिलेगा। गहने तो बस अब लॉकर की ही शोभा बढ़ा रहे हैं। शायद इसीलिये नयी लड़कियों में जींस का प्रचलन बढ़ा है। आदमी का दिमाग भी क्या चीज़ हैं कहीं भी, कुछ भी सोच सकता है। बाहर लगे जाम और चिल्ल-पों का मेरे मस्तिष्क में उठ रहे विचारों से कोई सरोकार नहीं था।

सरकते-सरकते एकाएक मेरी निगाह बायीं तरफ़ बने एक मॉल पर पड़ी। टारगेट गंतव्य तक जाने की बात सोच कर मेरे त्यौहार का जोश कम हो चला था। मैंने गाड़ी घुमा दी। मेरी तरह फँसे समझदार लोगों ने भी यही किया होगा। ऐसा ठसाठस भरी पार्किंग देख कर प्रतीत हो रहा था। दैवयोग से मेरी छोटी सी कार के लिये पार्किंग के दिल में जगह निकल आयी। ऐज़ अ ड्राइवर, मुझे ऐसी ख़ुशी मिली जिसने शॉपिंग के बाद मुझे लौटते समय जाम की चिन्ता से मुक्त कर दिया।  

पहले बच्चे पिता जी से आग्रह किया करते थे अलां चाहिये या फ़लां। पिता जी त्यौहार का हवाला देते, होली में नहीं तो दिवाली में ज़रूर दिला देंगे। भला हो अंतर्राष्ट्रीय स्तर की राष्ट्रिय गरीबी का, कि बच्चों की इच्छायें माता-पिता बिन माँगे ही पूरी कर देते हैं। सिर्फ़ हम दो- हमारे दो तक सीमित जीवन व्यवस्था ने समाज और परिवार के दूसरे सदस्यों के प्रति हमें अपनी ज़िम्मेदारियों से असंवेदनशील कर दिया है। 

बहुत दिनों बाद हम सबने दिवाली पर ट्रेडिशनल परिधान पहनने का निश्चय किया था। माँ-बेटी ने सलवार सूट लिया तो बाप-बेटे ने कुर्ता-पायजामा। भीड़ और भीड़ के कारण मची हबड़-तबड़ में, दीपावली की शॉपिंग निपटाई गयी। ट्रायल की गुंजाइश नहीं थी। चीन से हमें कुछ और सीखने को मिला हो या न मिला हो लेकिन एक बात तो है कि हमने प्यार-मोहब्बत को भी चाइना का माल बना दिया है। चले तो चाँद तक नहीं तो शाम तक। एक ज़माना था जब पिता जी दो साल बड़े भाई साहब को बाटा का लोहा-लाट स्कूल शू दो नंबर बड़ा खरीदते थे। दो साल भाई पहनते फिर मेरा नम्बर आ जाता। एक नॉर्थस्टार जूते से पूरे चार साल का बी.टेक. कर डाला, जूते का बाल भी बाँका न हुआ। वो तो नौकरी के चक्कर में दिल्ली में चटक गया नहीं तो घर के म्यूज़ियम में पड़ा होता। रंग और डिज़ाइन देख कर सब कपड़े खरीद कर, जाम में फँसते-फँसाते किसी तरह घर में दाखिल हो गये। 

मै टीवी के सामने नि:स्पृह भाव से चॅनेल्स बदलने में जुट गया। अन्दर ट्रायल शुरू हो चुका था। थोड़ी देर में बेटे ने पूछा "पापा कैसा लग रहा है, कुर्ता"। अपने बच्चे किसे अच्छे नहीं लगते। वो भी नये-नए कुर्ते में। "वेरी नाइस बेटा। लुकिंग ग्रेट"। अब तो अपना स्टैण्डर्ड भी फेसबुक टाइप के कमेंट्स देने का ही रह गया है। उसने मुस्कुराते हुये बताया "पापा इसमें जेब नहीं है"। "और मेरे  वाले में"। "नहीं, उसमें भी नहीं है"। जाम के ख़ौफ़ से लौटाने-बदलने का साहस नहीं बच रहा था। दुकान में लिखा एक स्लोगन मुझे टीलीली... ली कर के चिढ़ा रहा था "फ़ैशन के दौर में गारंटी की अपेक्षा न करें"। चीन से हमने यही तो सीखा है। 

दीपावली सर पर है। लक्ष्मी के आगमन के लिये घर की सफ़ाई भी ज़रूरी है। शॉपिंग में अपना सन्डे खराब नहीं करना चाहता। त्यौहार हैं तो जेब तो कटनी ही है। ऐसे नहीं तो वैसे। 

- वाणभट्ट  

पुनश्च : यह ब्लॉग एक सत्य घटना पर आधारित है। पात्र काल्पनिक हो सकते हैं। इसका जीवित लोगों से लेना-देना है। मरों की परवाह आज के युग में कौन करता है। त्यौहार के मौसम में कुर्ते में साइड जेब न लगा कर कम्पनी ने कितना श्रम, समय और पैसा बचा लिया इसका आँकलन प्रबुद्ध पाठकों पर छोड़ता हूँ। यदि आप मेरी तरह जेब प्रेमी हैं तो ट्रायल ज़रूर करके देख लें। मॉल है बड़का बाज़ार।

मंगलवार, 2 अक्तूबर 2018

भोजन का भविष्य

भोजन का भविष्य 

कमॉडिटी ट्रेडिंग छोड़ कर ग्रो-इंटेलीजेंस नामक डाटा एनालिसिस कम्पनी आरम्भ करने वाली सुश्री सारा मेंकर को टेड टॉक पर सुनना एक अद्भुत अनुभव रहा। अगस्त, 2017 में प्रेषित ये वार्ता भविष्य में भोजन की उपलब्धता के लिये समय रहते आगाह करने का प्रयास है। उनके अनुमान के अनुसार भोजन उपलब्धता की भयावह तस्वीर देखने के लिये शायद 2050 का इन्तज़ार न करने पड़े। आज उस भयावहता की कोई कल्पना भी न करना चाहे। लेकिन बहुत सम्भव है अब से मात्र एक दशक बाद ही इस स्थिति से दो-चार होना पड़ जाये। कुछ घण्टी बजी। हम भी इस चपेट में आ सकते हैं। प्रस्तुत लेख सुश्री सारा की वार्ता से प्रेरित है।  

उनके आँकलन के अनुसार 2050 तक 9 बिलियन तक पहुँच चुकी वैश्विक जनसंख्या को खाद्य सुरक्षा प्रदान करने के लिये आज की तुलना में 70% अधिक खाद्य सामग्री की आवश्यकता होगी। प्रत्येक व्यावसायिक गतिविधि सदैव उर्ध्वगामी नहीं होती। एक ऊंचाई तक पहुँचने के बाद एक अप्रत्याशित उतार अवश्य आता है और स्थितियाँ एकदम से बदल जाती हैं। और कई बार ये परिस्थितियाँ अपरिवर्तनीय होती हैं। स्टॉक मार्केट अक्सर इन अनिश्चितताओं से गुज़रता है। वहाँ प्रत्यक्ष रूप से आम आदमी या मानवता पर कोई संकट दिखायी नहीं देता। कृषि क्षेत्र में ऐसा परिदृष्य तब आयेगा जब भोजन की माँग और आपूर्ति में अन्तर को पाटना असम्भव हो जायेगा। यदि कभी खाद्य उपलब्धता में ऐसा हुआ तो दृश्य भयावहता की कल्पना से परे होगा। विभीषिका या भूख के कारण से उत्पन्न अराजकता, संवैधानिक और राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न करेगी। असामान्य मूल्य पर भी खाद्य सामग्री की अनुपलब्धता मानवता के लिये खेदपूर्ण हो सकती है। तब सम्भवतः ये समझने का समय भी न मिले कि पैसा और तकनीक भोजन नहीं उपलब्ध करा सकते। कृषि व्यवस्था की स्थिति बहुत ही छिन्न-भिन्न है और भविष्य की नीति निर्धारण के लिये उपलब्ध आँकड़ों का आधार बहुत सीमित और अल्प है। इसी कारण सुश्री सारा ने कमॉडिटी ट्रेडर का काम छोड़ कर एक उद्यमी बनने का निश्चय किया। ग्रो-इंटेलिजेंस एक डाटा विश्लेषण कम्पनी है जो पॉलिसी बनाने वालों को आँकड़े उपलब्ध कराती है। ये कम्पनी विश्व के प्रत्येक नागरिक को खाद्य सुरक्षा में आने वाले संकट से बचाने के लिये एक व्यावहारिक मार्गदर्शक का काम भी कर रही है। 

विश्व कृषि परिदृश्य में गिरावट 2027 में ही परिलक्षित होने लगेगी जब विश्व की खाद्य आवश्यकता और उपलब्धता में 214 ट्रिलियन कैलोरी का अन्तर होगा। सभी खाद्य पदार्थों की पोषक क्षमता बराबर नहीं होती इसलिये टन और किलोग्राम में खाद्य उपलब्धता व्यक्त करने का कोई प्रयोजन नहीं है। भोजन की मात्रा नहीं, भोजन द्वारा प्राप्त कैलोरी का निर्धारण स्वस्थ जीवन शैली के लिये आवश्यक है। आज से चालीस साल पहले कृषि की स्थिति का आँकलन करने पर पता चलता है कुछ ही देश कैलोरी की दृष्टि के स्वावलम्बी थे या कैलोरी निर्यातक थे। अधिकाँश देश कैलोरी के आयातक हुआ करते थे। जिनमें अफ्रीका, यूरोप और भारत भी सम्मिलित थे। चीन उन दिनों खाद्य कैलोरी उपलब्धता में विषय में स्वावलम्बी था। चालीस साल बाद आज चीन में औद्योगिक क्रांति तो दिखायी देती है किन्तु खाद्य आवश्यकताओं के आधार पर यह एक बड़ा आयातक देश बन गया है। भारत ने हरित क्रांति के माध्यम से खाद्य आत्मनिर्भरता में के बड़ी छलाँग लगायी। विश्व पटल पर अफ्रीकी और मध्य एशिया के देशों और चीन को छोड़ कर अधिकाँश देश अपनी कैलोरी आवश्यकताओं में आत्मनिर्भर हो गए हैं। लेकिन आज से पाँच साल बाद (2023 में) जब विश्व की आधी आबादी के अफ़्रीका, भारत और चीन में होगी तब खाद्य अवस्था पर क्या प्रभाव पड़ेगा ये सोचने का विषय है। ये तीनों क्षेत्र विश्व में खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से बड़ी चुनौतियाँ प्रस्तुत करने वाले हैं। ये सभी देश अतिरिक्त कैलोरी उत्पादक देशों से कैलोरीज़ का आयात करने को विवश होंगे। समस्त अतिरिक्त कैलोरी अफ़्रीकी देशों, भारत और चीन का ही भरण करने में सक्षम होंगी। अतिरिक्त कैलोरी उत्पन्न करने वाले देशों को भी ये उत्पादन वृद्धि निर्वनीकरण के रूप में मूल्य चुका कर ही करनी होगी।

कैलोरी अभाव वाले देशों के लिये अतिरिक्त कैलोरी उत्पादक देशों से खाद्य सामग्री की बर्बादी कम करने या खाद्य उपयोग में परिवर्तन लाने की आशा करना सही नहीं है, न ही समस्या का समाधान है। कोई आपकी आवश्यकता के लिए अपना खाद्य व्यवहार भला क्यों बदलेगा। समस्या का समाधान भी कैलोरी अभाव वाले क्षेत्रों से ही आयेगा। चीन में कृषि हेतु भूमि और पानी की उपलब्धता की समस्यायें हैं। इसलिए समाधान के लिये अफ्रीका और भारत ही से आशा की जा सकती है। भारत में भी भूमि एक सीमित संसाधन है किन्तु उत्पादकता में वृद्धि की सम्भावनायें हैं। अफ्रीका में कृषि योग्य भूमि बड़ी मात्रा में उपलब्ध है और वहाँ अभी भी उत्पादकता का स्तर वही है जो 1940 में उत्तरी अमेरिका का था। खाद्य सुरक्षा की समस्या के समाधान के लिये बहुत समय नहीं बचा है। इसलिये आवश्यकता है कुछ नया करने की, कुछ अलग करने की, कुछ सुधार करने की। आवश्यकता है अफ्रीका और भारत में कृषि के व्यवसायीकरण और औद्योगीकरण की। इसका उद्देश्य मात्र खेती के व्यवसायीकरण से नहीं है। इसका उद्देश्य आंकड़ों का विश्लेषण करके नीति निर्धारण में सहायता, आधारभूत संरचना (इंफ्रास्ट्रक्चर) का विकास, परिवहन मूल्यों में कमी, बैंकिंग और बीमा क्षेत्रों में सुधार, तथा खेती में असुरक्षा की आशंका को कम करना है। बिना लघु और मझोले किसानों को प्रभावित किये सम्पूर्ण कृषि व्यवस्था के व्यवसायीकरण की महती आवश्यकता है। व्यावसायिक खेती और लघु किसानों के मध्य सहअस्तित्व का मॉडल विकसित करने की आवश्यकता है। भारत भविष्य में उत्पादकता में वृद्धि के द्वारा अपनी स्वावलम्बन की स्थिति को बनाये रखने में सक्षम है। किन्तु 2027 तक 214 ट्रिलियन कैलोरी की कमी और 8.3 बिलियन जनसंख्या को भोजन उपलब्ध कराने में अफ़्रीकी देशों की महत्वपूर्ण भूमिका होने वाली है। भविष्य में बढ़ती जनसंख्या और वैश्विक खाद्य सुरक्षा के प्रश्न का उत्तर अब  हमारे पास है। बस उस पर अमल करने की आवश्यकता है।  

वर्ष 2006 में योजना के सितम्बर अंक में एक लेख छपा था "एग्रीकल्चर ऐज़ ऐन इंडस्ट्री"। कृषि ही एक ऐसा उद्योग है जो बढ़ती जनसंख्या को भोजन, रोजगार और आय उपलब्ध करा सकता है। आवश्यकता है इसे समग्रता से देखने की। आर्थिक समृद्धि को सहजता से अधिक भोजन ग्रहण करने की प्रवृत्ति से जोड़ा जा सकता है। जेब में पैसा है तो स्वाद पर सबका अधिकार जायज़ है। दिन-दूना रात चौगुना बढ़ता मेरा पेट मुझे रोज चिढ़ाता है। किसी दूसरे के खाद्य हिस्से पर मेरा हक़ नहीं है। डाक्टरों के यहाँ निरन्तर बढ़ती लाइनें और बढ़ता मेडिकल बिल उन्हें भी नहीं चिंतित कर पाता जो दिन-रात खाद्य समस्या हाइलाइट करने में उलझे हुये हैं। अधिक भोजन ही अधिकांश बीमारियों की जड़ है, जब कि संतुलित आहार से ही स्वस्थ जीवन शैली सम्भव है। इसलिये कैलोरी ग्रहण (काउन्ट) पर बहस करने का अब मुनासिब समय है। गुटका, शराब, अतिकैलोरी खाद्य सामग्री के उपयोग को सिर्फ इसलिए बढ़ावा मिल रहा है कि लोगों की क्रय शक्ति में वृद्धि हुयी है। इलाज़ पर खर्च भी उन्हीं का बढ़ रहा है जो स्वाद और जीवन-आनन्द को रुपयों से तौल रहे हैं। जापान में बॉडी-मास इंडेक्स में परिवर्तन के हिसाब से इंश्योरेंस प्रीमियम घटता या बढ़ता है। संपन्न लोगों से दूसरों के लिए त्याग की अपेक्षा व्यर्थ है लेकिन उनसे उन्हीं के स्वास्थ्य की अपेक्षा तो की ही जा सकती है। असंयमित जीवन शैली कारण मानवजनित अस्वस्थता पर इंश्योरेंस प्रीमियम में वृद्धि तथा इलाज़ पर हुये ख़र्च पर टैक्स शायद लोगों को संतुलित भोजन के लिये प्रेरित कर सके। 

जब देश भविष्य में युद्ध की आशंका से बम और बारूद के ज़खीरे इकट्ठा कर सकते हैं तो क्या भविष्य के लिये भोजन के भण्डार नहीं बनाये जा सकते। भविष्य की लड़ाई हमें आज उपलब्ध तकनीकों से ही लड़नी होगी। विगत वर्षों में दलहन में भारत की आत्मनिर्भरता ने एक नयी इबारत लिख दी है। इस सफलता ने यह सिद्ध कर दिया है कि गुणवत्ता वाले बीजों की उपलब्धता बढ़ा कर, बीज प्रतिस्थापन और सुनिश्चित सरकारी खरीद के द्वारा उत्पादन लक्ष्य को वर्तमान तकनीकों के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। अब बात मात्र कृषक आय दोगुनी की ही नहीं होनी चाहिये। बात ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी सुविधाओं की भी होनी चाहिये, ताकि शहरों पर बढ़ते अनावश्यक बोझ को कम किया जा सके। इसके लिये  ग्राम्य-अंचल में कृषि आधारित उद्योगों की स्थापना करनी आवश्यक है। कटाई उपरान्त होने वाली हानियों को कम करके भोजन की उपलब्ध्ता को बढ़ाया जा सकता है। प्रसंस्करण के माध्यम कृषि उत्पाद की भण्डारण अवधि (शेल्फलाइफ़) तथा ग्रामीण आय में कई गुना वृद्धि सम्भव है। भण्डारित अनाज का एक बड़ा हिस्सा आपात स्थितियों से निपटने के लिये भी होना चाहिये। एक लीटर में अस्सी किलोमीटर चलने वाली हीरो हौंडा मोटरसाइकिल जब सन 1985 में जब लॉन्च हुयी थी तब उनका स्लोगन था "फिल इट-शट इट-फॉरगेट इट"। भविष्य में खाद्य सुरक्षा की चुनौतियों को देखते हुये कुछ ऐसा ही प्रबन्धन आवश्यक है। बचपन में कहानी सुना करते थे अकाल पड़ने पर राजा ने अपने सारे गोदाम खोल दिये। गोदाम भी होते थे पहाड़ की कंदराओं में। तकनीकी रूप से अब हम अधिक सक्षम हैं। दिक्कत सिर्फ इतनी है कि समस्याओं पहचान और उन्हें चिन्हांकित (हाइलाइट) करने में हमने इतनी ऊर्जा लगा दी है कि संभावनाओं और समाधानों की ओर से हमारा ध्यान भटक गया है। हम ऐसी खोज के पीछे भाग रहे हैं जिस पर जलवायु परिवर्तन, कीट या रोग का प्रकोप न पड़े। उचित जलवायु, मृदा और जल के जटिल जाल में इच्छित परिणाम प्राप्त करने में कुछ हद तक सफलता  मिली अवश्य है किन्तु ये विकास की सतत चलती रहने वाली अन्तहीन प्रक्रिया है। जैसा सुश्री सारा ने बताया हमारे पास समाधान हैं बस उन्हें अमल में लाने की आवश्यकता है। समाधान पूरी कृषि मूल्य श्रृंखला (वैल्यू चेन) के समग्र प्रबन्धन में निहित है।  

यदि भोजन और स्वास्थ्य सरकारों की ज़िम्मेदारी है तो इस दिशा में भी नीतियाँ बननी चाहिये। ताकि 2023 तक हम चुनौतियों के लिये तैयार रहें। आज देश उस महापुरुष का 149वां जन्मदिन मना रहा है जिसने पूरे देश को वस्त्र उपलब्ध हो सके इसलिये आधी धोती पहन ली। क्या हम अपने स्वास्थ्य के लिये अपनी कैलोरी नहीं गिन सकते। भोजन की कमी की समस्या का निवारण उसकी उचित वितरण प्रणाली से संभव है।खाद्य समस्या के निदान के लिये उन्हीं देशों को प्रयास करना पड़ेगा जिनके लिये यह चिंता का विषय है। सम्भवतः समस्याओं का हल भी वहीं से निकलता है जहाँ से वो शुरू होती हैं।  

- वाणभट्ट 




  

शनिवार, 29 सितंबर 2018

प्रायश्चित

प्रायश्चित 

करिया भैया जब पैदा हुए तो झक सफ़ेद थे। दादी ने "आ गए करियउ" कहते हुये बच्चे का स्वागत किया और माथे पर काला टीका लगा दिया। बच्चे के माँ और बाप दोनों ही साफ़ रंग के थे इसलिये बच्चे के काला होने की गुंजाइश न के बराबर थी। लेकिन दादी को मालूम था कि कितनी मन्नतों और चार लड़कियों के बाद ईश्वर ने उनकी सुनी। गोदी में पोता लिया तो जैसे इस जन्म के सारे बन्धन कट गये। आठ पाउण्ड के सुन्दर-स्वस्थ बच्चे को हर बुरी नज़र से बचाना ज़रूरी था। इसलिये उन्होंने पहले से ही नाम सोच रखा था - काली प्रसाद मिश्र। उन दिनों 40 -50 साल के होने को आये बेटा-बहू की क्या मज़ाल कि अपने माँ -बाप की आज्ञा की अवहेलना कर सकें। इस प्रकार काली प्रसाद मिश्र जी का अवतरण भवानी प्रसाद मिश्र जी के आँगन में हो गया। स्कूल के नाम से अलग नाम की व्यवस्था सम्भवतः इसलिये की गयी ताकि घर-पास-पड़ोस का हर प्राणी अपने-अपने प्रेम को अपने-अपने हिसाब से व्यक्त कर सके। फलस्वरूप काली के जितने अपभ्रन्श सम्भव थे उन सभी नामों से उस खूबसूरत-हँसते-मुस्कुराते-खिलखिलाते बच्चे को नवाज़ा गया। कलुवा, करियवा, कालिया, कल्लू और करिया आदि-आदि। आखिर के दो नाम बच्चे के साथ ऐसे चिपके कि लाख चाहने के बाद भी वो किसी के लिये कल्लू था तो किसी के लिये करिया। 

मेधावी काली प्रसाद मिश्र ने उच्च शिक्षा प्राप्त करके एक शालीन सरकारी नौकरी का जुगाड़ कर लिया था। भवानी प्रसाद ने पूरी ज़िन्दगी सरकारी क्लर्की में निकाल दी थी। बेटा जब सरकारी अफसर बन गया तो उनकी ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा। सरकारी आवास मिला। सरकारी गाड़ी मिली। गज़टेड क्लास वन बताते-बताते भवानी इतने भाव-विह्वल हो जाते कि लगता इसके पहले या बाद में कोई और इस पद की शोभा नहीं बढ़ा पायेगा। अब उनकी तमन्ना थी जल्दी से जल्दी अवकाश प्राप्त करके बेटे के साथ रहने की और उसकी अफसरी का लुफ़्त उठाने की। रिटायरमेन्ट के बाद स्कूल में शौकिया पढ़ाने वाली बहू ने बहुत समझाने की कोशिश की कि पिता जी आप अपने शहर और अपने मकान में ही रहिये हम लोग आते-जाते रहेंगे और आपका ख्याल रखेंगे। लेकिन भवानी बाबू के अपने तर्क थे। पत्नी के देहावसान और बेटियों के विवाह के बाद अब बस बेटा-बहू-पोते के साथ ही रहने की इच्छा है। और फिर पाँच कमरों के सरकारी बंगले में तुम ढाई प्राणी क्या करोगे। मैं साथ रहूँगा तो पोते को कहीं क्रेच में नहीं डालना पड़ेगा। "देखो कल्लू अब मैं अकेले यहाँ नहीं रहने वाला"। भवानी बाबू ने अपना निर्णय सुना दिया था। 

सरकारी मकान में आ कर और पोते को गोद में लेकर दिन भर भवानी बाबू कालोनी में घूमा करते। काली प्रसाद को जिस बात का अन्देशा था वो होना ही था और हुआ भी। पूरे मोहल्ले को जल्द ही मालूम हो गया कि केपी साहब के घर का नाम कल्लू है। उन्होंने ड्राइंग रूम के दीवान पर अपना कब्जा जमा लिया। चूँकि टीवी भी वहीँ लगा था इसलिये यदि क्रिकेट या फुटबॉल मैच न आ रहा हो तो अपने पोते लालता प्रसाद मिश्र, जिसे प्रेम से वो लल्लू, लालू, ललुआ बुलाते, के साथ पोगो देखने में उन्हें बहुत आनंद आता। बेटे-बहू ने पिता जी के चक्कर में टीवी देखना छोड़ दिया। उन्हीं के चक्कर में केपी की मित्र मण्डली और बहू की सहेलियों ने आना-जाना कम कर दिया। निष्कपट भवानी बाबू का ध्यान इस ओर कभी गया ही नहीं। इन सब प्रपंचों से मुक्त उन्होंने अपना सर्वस्व लल्लू की सेवा में झोंक रखा था। उनके हिसाब से उन्हें इस जिन्दगी इससे ज़्यादा की उम्मीद भी नहीं थी। 

सब कुछ ठीक चलता रहता यदि लल्लू का प्ले ग्रुप में दाख़िला ना होता। भवानी बाबू को क्या पता कि अफसर बनाना अब उतना आसान नहीं रहा। प्लेग्रुप से जब बच्चा मेहनत करेगा तभी तो इंजिनियर या डॉक्टर बनेगा। उनका ज़माना तो रहा नहीं कि डिग्री लो और नौकरी पा जाओ। बेटे-बहू को अब पोते के भविष्य की चिन्ता होने लगी थी। "देखो ये पिता जी के साथ रहेगा तो यही सब करेगा। टीवी में कितना मन लगता है इसका। ऐसा करो पिता जी को पीछे कमरे में शिफ्ट कर देते हैं। एक टीवी और लगवा दो। उन्हें क्या, बस दिन भर टीवी ही तो देखना है।" पति-पत्नी ने मशविरा किया और अगले दिन इस योजना को क्रियान्वित भी कर दिया। पढ़ाई बढ़ने के साथ-साथ लल्लू भी व्यस्त होता चला गया। कभी ट्यूशन्स तो कभी कोचिंग। उम्र के इस पड़ाव तक पहुँचते-पहुँचते बिना जले ही रस्सी के सारे बल ढीले पड़ जाते हैं। मूल और सूद के दम पर अपना घर छोड़ आये थे। अब तो जिस विधि राखे राम उसी विधि रहिये वाली स्थिति थी। शरीर भी कम साथ देने लगा था इसलिये बाहर निकलना दिनोंदिन कम होता जा रहा था। शाम होते-होते पीछे कमरे में उनका मन हुड़कने लगता। पता भी नहीं चलता कल्लू ऑफिस से आये की नहीं।

साढ़े-चार बजते न बजते वो साइड के गलियारे से निकल कर गेट तक आ जाते। और गेट पर लटक कर कल्लू के लौटने का इन्तज़ार करते। हर आने-जाने वाले से अपनी फ़िक्र का ज़िक्र ज़रूर करते। "का बतायीं अबहिन तक कल्लू नहीं आये।" अन्दर से बहू चिल्लाती "बाबू जी अन्दर आ जाइये जब आना होगा आ जायेंगे। आपके गेट पर खड़े होने से वो जल्दी नहीं आ जायेंगे।" धीरे-धीरे ये रोज का नियम बन गया था। अब तो अडोसी-पडोसी भी चुटकी लेते। पूछ लेते "बाबू जी कल्लू अभी आये नहीं क्या।" भवानी बाबू निशंक भाव से बताते कि "आज बड़ी देर हो गयी। कल्लू को पता नहीं ऑफिस में कौन सा काम आ गया। पता नहीं कहाँ लेट हो गये।" गेट पर ऑफिस की दिशा में टकटकी लगाये खड़े बाबू जी को देख कर सरकारी गाड़ी से उतरते हुये श्रीमान केपी  मिश्र  उर्फ़ कल्लू का रोम-रोम सुलग उठता। उन्हें पता था कि साढ़े-चार बजे से गेट पर लोग कल्लू-कल्लू नाटक का रसास्वादन कर रहे होंगे। वो आपे से बाहर हो उठता। उन्हें लगभग डाँटते हुये अन्दर चलने को कहता। भवानी बाबू शायद इसी में खुश हो जाते कि बेटा सकुशल वापस आ गया और उसने उनसे बात की।

जगह बदलती है, समय बदलता है, नहीं बदलता है समय का लेख। कल ही किसी ने सूचना दी कि करिया भैया बेटे लल्लू के साथ लखनऊ में रह रहे हैं। आजकल केपी बाबू हर शाम बालकनी में आधे लटके हुये टकटकी बाँधे लल्लू के ऑफिस से लौटने का इंतज़ार करते हैं। और लल्लू ऑफिस से लौटते ही जब तक उन्हें दो-चार खरी-खरी न सुना दे, वो अन्दर नहीं जाते। उन्हें उसकी बातों का बिल्कुल बुरा भी नहीं लगता। ये सिलसिला हर रोज घटित होता है। जाने अन्जाने शायद यही उनका प्रायश्चित है।         

-वाणभट्ट 

शुक्रवार, 14 सितंबर 2018

मॉब लिंचिंग

मॉब लिंचिंग

लम्बी सी मेज पर ऑटोकैड से बनाये ढेर सारे चित्र क्रमवार तरतीब से सजा कर रखे हुये थे। उनके निरीक्षण में किसी प्रकार की दिक्कत न हो, इसलिये देखने वाला और दिखाने वाला दोनों ही पेपर्स के पास जाते और डिस्कस करते। करीब सत्ताईस बोन कॉम्पोनेंट्स के फ्रंट-साइड-टॉप व्यूज़ और उनकी असेम्बली ड्रॉइंग्स रखी थीं। दिखाने वाले ने कहा - "सर जैसा आपने कहा था कि ये उत्पत्ति अल्टीमेट होनी चाहिये। मैंने भी पूरा प्रयास किया है। एक-एक पार्ट के माइन्यूट से माइन्यूट पॉइंट का डिटेल है। सब मिल कर अपने आप में सम्पूर्ण और अद्वितीय है। पूरी एक टीबी की हार्डडिस्क भर गयी। इससे बढ़िया रचना न कभी हुयी है न आगे कभी होगी। जब ज्ञान और बुद्धि को आत्मसात करने वाला मस्तिष्क बना दिया है तो ये नित्य कुछ न कुछ नया करने का प्रयास अवश्य करेगा। हो सकता है भविष्य में हमें भी रिप्लेस कर दे। वैसे तो इसका हर कॉम्पोनेन्ट आवश्यक और अपरिहार्य है। लेकिन मशीन को पूर्णतः आत्मनिर्भर और रचनात्मकता को यथार्थ में परिवर्तित करने के लिये ये असेम्बली ही मानव को अन्य प्राणियों से अलग करेगी। मैंने बहुत सी संरचनायें निर्मित की किन्तु मेरे विचार से इससे उत्कृष्ट व्यवहारिक संरचना मेरी कल्पना से परे है। अब मै अपने कम्प्यूटर को फॉर्मैट करना चाहता हूँ ताकि कोई नयी चीज़ सोच-बना सकूँ।"

गहन चिंतन में डूबे संरचना की असेम्बली ड्रॉइंग को देखते हुये उनके माथे पर चिन्ता की कुछ लकीरें उभर आयीं । "सिर्फ़ हाथों की कमी थी। आपने तो धरती के इस प्राणी को तो पूरी तरह भगवान का ही रूप दे दिया। लेकिन जिस सन्यम और विवेक के साथ हम अपनी बुद्धि का उपयोग सृष्टि निर्माण में करते हैं शायद मनुष्य अपने हाथों का उतना विवेकशील उपयोग न कर सके। शक्ति के सदुपयोग से ज़्यादा उसके दुरूपयोग की सम्भावना होती है, वत्स विश्वकर्मा।" उलझी हुयी दाढ़ी को अपने हाथों से सुलझाने के प्रयास में लगे हुये ब्रम्हा जी ने उवाचा।

विश्वकर्मा जी ने विनम्रतापूर्वक कहा "प्रभु रोज-रोज ना-ना प्रकार के एक से एक विचित्र प्राणी बनाते-बनाते मै थक गया हूँ और अघा भी। इसलिए आपसे अनुनय है कि मुझे अपने जैसे प्राणी का निर्माण करने की अनुमति दी जाये। ऐसा प्राणी जो मेरे काम में कुछ सहयोग कर सके। ये पृथ्वी का सबसे उन्नत जीव होगा। सम्भवतः इसके बाद मुझे किसी और जीव को बनाने की आवश्यकता भी न पड़े। ये खुद ही विज्ञान के माध्यम से नए-नए जीव विकसित करने में सक्षम होगा। इसको मैंने देवताओं की सारी शक्तियों से लैस कर दिया है।" विश्वकर्मा जी के ऊपर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की सृष्टि का वर्क लोड़ था। 24  x 7  घंटे,  365  दिन। न कोई ईएल न कोई सीएल। और ब्रम्हा जी इस बात से भली-भाँति वाक़िफ़ भी थे। फिर भी उन्होंने कहा "भाई सोच लो ये हाथ दे दिया तो मनुष्य और देवताओं-भगवानों क्या अन्तर रह जायेगा। हो सकता है इसको प्रदान करने के बाद हमारा और तुम्हारा काम ही ख़त्म हो जाये। अभी तो मानव कभी-कभार भगवानों को याद भी कर लेता है। हाथ मिलने के बाद जो कर्ता भाव आयेगा, मुझे डर है कहीं इन्सान खुद को ख़ुदा न समझ बैठे।" लेकिन विश्वकर्मा जी उस समय उसी तरह रिलक्टेंट थे जैसे आज सरकारी दफ्तर के इनडिस्पेंसिबल अधिकारी। जो कह दिया सो कह दिया बॉस भले आप हों लेकिन चलेगी उनकी ही।

डार्विन साहब की इवोल्यूशन की थ्योरी उन लोगों के लिये है जो अँग्रेजी में लिखी हर बात को ज़रूरत से ज़्यादा तरज़ीह देते हैं। लेकिन उस देश में जहाँ हर तीसरा व्यक्ति अपने फंडे प्रतिपादित करता घूम रिया है, वहाँ कुछ लोग सिर्फ फ़्रीडम ऑफ़ एक्सप्रेशन के कारण एंटीगुआ में शरण नहीं माँग रहे हैं। चाहे सरकार को गरियाओ चाहे भगवान को, कउनो रोके वाला नहीं ना। चार पिछलग्गू मिल गए तो एक नयी पार्टी बना लो और बीस मिल जायें तो बाबा बन के नया सम्प्रदाय। पूरी आज़ादी है। चचा गुलज़ार पहले ही फ़रमा चुके हैं - थोड़ी बेकारी है वर्ना यहाँ बाकी हाल-चाल-वाल ठीक-ठाक है। 

जो भगवान इतनी वैराइटी के प्राणी बना सकते हैं, वो बन्दर के इंसान बनने का वेट भला क्यों करेंगे। हज़ारों साल के मानव इतिहास में जब किसी ने टिड्डे को चिड़िया में बदलते नहीं देखा तो ये मानना आवश्यक है कि भगवान ने चिम्पैंजी और आदमी अलग अलग बनाये होंगे। हाँ आदमी बनाने की प्रक्रिया में कुछ बन्दर-लंगूर-आरंगुटान-चिम्पैंजी ज़रूर बन गए होंगे। गौर करिये तो शायद हाथों के फ़र्क ने इंसान को अन्य प्राणियों से अलग कर दिया। आयतन (वॉल्यूम) के हिसाब से बहुत से प्राणियों का मस्तिष्क मानव मस्तिष्क से कई गुना बड़ा होगा लेकिन वो वन-टू का फ़ोर नहीं कर पाये।और आदमी है कि हर समय हर जगह उसी के चक्कर है। इसमें किसी को कोई शक़ नहीं होना  चाहिये कि मानव से ज़्यादा विकसित मस्तिष्क किसी अन्य प्राणी का नहीं है। हाथ ने उसे ये रचनात्मक आज़ादी दी कि जिस चीज़ के बारे में वो सोच सकता है उसका निर्माण भी कर सकता है। मानव साक्षात् विश्वकर्मा का रूप है लेकिन तभी तक जब तक कि उसकी बुद्धि और विवेक में सामंजस्य बना हुआ है। रचनात्मकता है तो सृजनशीलता किसी न किसी रूप में परिलक्षित अवश्य होगी। ये जो अपने चारों ओर हैलीकॉप्टर से लेकर टूथब्रश तक जो भी दिखायी दे रहा है, मानव में निहित विश्वकर्मा का ही प्रतिफल है। कुछ ज़्यादा फेंक दिया हो तो लपेटते चलिये फिर लपेटने का मौका मिले न मिले।  

आदमी को अपना ही समकक्ष बना कर विश्वकर्मा जी को लगा अकेले वो जितना काम नहीं कर पा रहे थे उनके बनाये मानव अपनी सृजनशीलता से धरती को स्वर्ग से भी ऊपर ले जाने में सक्षम होंगे। वो ऊपर बैठे-बैठे बस आइडिया देते और आदमी उसे क्रियान्वित करता रहता। लेकिन आदमी तो आदमी है देवता बनने का ठेका तो ले नहीं रखा है इसलिये कभी-कभी बुद्धि-विवेक का सामन्जस्य गड़बड़ाता रहता है। नतीजन उन्हीं हाथों से वो ऐसे-ऐसे विध्वन्सक कृत्य कर बैठता कि विश्वकर्मा जी को अपने निर्णय पर अफ़सोस होता - कि हाथ दे कर कुछ गलत तो नहीं कर दिया, - कि काश उस समय ब्रह्मा जी की बात मान ली होती।

कुछ देशों ने छोटे-मोटे अपराधों के लिये कॉर्पोरल पनिशमेंट यानि ठुकाई का प्रावधान रखा है। हेलमेट-रॉन्ग साइड-सीट बेल्ट-रैश ड्राइविंग-कूड़ा फेंकना-फब्तियाँ कसना आदि-इत्यादि के लिये यदि गाहे-बगाहे ठुकाई होती रहे तो आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि शौकिया कानून तोड़ने वाले अप्रत्याशित रूप से कम हो जायेंगे। और उस ठुकाई के सजीव प्रसारण के लिये एक चैनल भी डेडिकेट किया जा सकता है। दूसरे के फ़टे में आनन्द खोजने वाले देश में न्यूज़ चैनल से ज़्यादा टीआरपी ऐसे चैनल को मिलनी सुनिश्चित है। कुछ आदिम सभ्यता का पालन करने वाले देशों में तो चोरी-चाकरी जैसे कृत्यों के लिये हाथ के विभिन्न हिस्सों को कम करने का भी प्रावधान है। उंगली काटनी है कि अँगूठा या पूरा हाथ ये चोर की नियत और चोरी के मैग्नीट्यूड पर निर्भर करता है। वो भी 24 से 48 घण्टे के भीतर, बिना किसी लम्बी न्यायिक प्रक्रिया के। वहाँ सड़क पर पर्स फेंक आइये तो भी किसी की क्या मजाल जो उठा ले। यहाँ बैग में बम रख आइये तो भी कबाड़ी चेक करके पुलिस को सूचित करेगा कि सर फलां जगह बम पड़ा मिला है, कहो तो डिफ्यूज करके घर ले जायें। चूँकि पुराने ज़माने के बच्चों की टीचरों और पड़ोसियों द्वारा इतनी ठुकाई हो चुकी होती थी कि बच्चे ज़रूरत से ज़्यादा सुधर जाते थे। इतने सुधर जाते थे कि बड़े होने पर उन्हें घटिया और दुष्ट लोगों की संगत करनी पड़ती थी ताकि वो सिस्टम में फिट हो सकें। यदि देश में छोटे-छोटे अपराधों के लिए वीडिओ रिकॉर्डिंग के साथ यदि ठुकाई की सजा मिलने लगे तो पूरी उम्मीद है बड़े-बड़े न्यायलय और कारागार कबूतरों की क़ब्रगाह बन के रह जायेंगे। सुना है एक देश में तो शिक्षा और कर्तव्य का पाठ पढ़ कर लोगों ने इस कदर अपराध करना छोड़ दिया कि कारागार बंद करने तक की नौबत आ गयी।

अब दिमाग है और हाथ है तो हर आदमी कुछ न कुछ तो करेगा ही। हर आदमी सृजनात्मक रूप से क्रिएटिव हो ऐसा सम्भव भी नहीं है। ऐसे लोगों से ही हाथ के दुरूपयोग की सम्भावना है। वो कान में उँगली करेगा या नाक में। अपने तक सीमित रहे तो गनीमत है। जब अपने नाक-कान साफ़ हो गये तो वो खाली बैठने से तो रहा। अपने नहीं तो दूसरों के ऊँगली करेगा। यहीं से सारी गड़बड़ की शुरुआत होती है। चाहे तो वो हाथ पे हाथ धर के भी बैठ सकता है। लेकिन उसके ज़िन्दा रहने पर लोग प्रश्न खड़े करने लगेंगे। इसलिये ज़रूरी है कि कुछ न कुछ हाथों का उपयोग करता रहे। 

ब्रह्मा जी ने विश्वकर्मा जी से अपनी व्यथा बतायी कि "इन्हें ऐसे छोड़ दिया तो प्रलय से बहुत पहले ही प्रलय लानी पड़ेगी। कुछ करते क्यों नहीं।" टेक्नीकल लोगों की एक खासियत तो है ही कि वो हर समस्या का अप्प्लाईड समाधान निकाल लेते हैं। स्वान्तः सुखाय टाइप के मौलिक शोध में सन्साधन और समय वो व्यर्थ करें जिन्हें कभी नोबेल मिलने की उम्मीद हो। मुस्कुराते हुये विश्वकर्मा जी ने कहा "बस इत्ती से बात"। उन्होंने आनन्-फानन में स्मार्टफ़ोन की परिकल्पना पृथ्वीवासियों के हाथों में थमा दी।

इसका मिलना था कि एक क्रांति आ गयी। कम्प्यूटर की शक्ति वाले इस यन्त्र में असीमित क्षमतायें उफान मारने लगीं। जिन लोगों से ए जी - ओ  जी नहीं सम्भल  रहा था वो  देखते ही देखते 3 जी - 4 जी की बातें करने लगे। हाथ बिज़ी हो गये। लोग अपने आँख-नाक-कान तक भूल गये। अब देश और दुनिया उनके फिंगर टिप पर थी। जो चाहे देखो जो चाहे सुनो। एक बच्चे ने तो हिस्ट्री-जॉग्रेफी विषयों के कोर्स में रखे जाने के औचित्य पर ही सवाल उठा दिया। कहा रटने-रटाने के दिन लद गये। जब गूगल है तो ख़ामख़्वाह अपनी हार्डडिस्क पर क्यों फालतू लोड डालना। हर चीज़ का क्रैश कोर्स है। जब चाहेंगे पढ़ लेंगे, सीख लेंगे। अभी तो बस दिमाग़ को खुलने दीजिये। पैराशूट और दिमाग़ तभी काम करते हैं जब खुले हों। हमारा ज़माना होता तो सरऊ को दुइ कन्टाप मारते। लेकिन अब ज़माना बदल गया है।

ज़माना कितना भी बदल जाये लेकिन आदमी और आदमी की फ़ितरत तो बदलने से रही। विशेष रूप से उस देश में जहाँ नियम-कानून को मानव विकास की सबसे बड़ी बाधा मान कर हर कोई तोड़ने के लिए उत्साहित रहता हो। पहले तो लोग उंगली करके सन्तुष्ट हो लेते थे, स्मार्ट फोन आने के बाद से अँगूठा करने से बाज नहीं आ रहे। दिन भर चैटिंग। पता नहीं कितनी साइट्स और सोशल साइट्स खुल गयी हैं हाथों को व्यस्त रखने के लिये। इस फ़िराक़ में जेसचर-पॉशचर सब बदल गया है। दिमाग और अँगूठे का सामंजस्य बिठाने के चक्कर में बुद्धि और विवेक का तारतम्य टूटता चला गया। शक्ति का उपयोग तभी तक अच्छा है जब तक वो मानव कल्याण में लगे। अब हर कोई अपने-अपने ज्ञान और अनुभव के हिसाब से सामाजिक परिदृश्य की विवेचना कर रहा है। सूचना विस्फोट ने तो आदमी को कन्फ्यूज़ कर ही रखा था उस पर पे कमीशनों ने सोने पे सुहागे काम किया। ज्ञान के साथ इंसान विनम्र होता चला जाता है लेकिन धन के साथ अकड़ता। उसका स्मार्टफोन मेरे स्मार्टफोन से महँगा कैसे। बदल डालो। आदमी इतना बिज़ी है, इतना बिज़ी है कि किताबें पढ़ने का समय नहीं मिलता। तो चिन्ता की क्या बात है। वाट्सएप्प और फेसबुक और इंस्टाग्राम तो है। यहाँ ज्ञान फटा पड़ रहा है। जितना चाहे बाँटो जितना चाहे बटोरो। 

ज्ञान बटोरने तक तो फिर भी ठीक है लेकिन बाँचने से पहले आप ट्रैफिक सिगनल वाला रूल अपनाइये। रुकिए-देखिये-जाइये। ध्यान से पढ़िये - गौर से सोचिये किसे भेजना है - फिर फॉरवर्ड कीजिये। अब होता क्या है कि इतनी इन्फॉर्मेशन जब हर तरफ से दिन भर लगातार आ रही हो तो कई बार बुद्धि-विवेक किनारे रह जाते हैं। जैसे फ़ास्ट बाउन्सर के आगे खड़े हो कर विराट को बल्ला लगाने या छोड़ने का निर्णय फ्रैक्शन ऑफ़ सेकेंड्स में लेना होता है। मैसेज आया और फॉरवर्ड किया में भी स्थिति कुछ ऐसी ही होती है। कई बार तो यकीन मानिये पढ़ने का भी समय नहीं होता आदमी बस बिज़ी रहने के लिये फॉरवर्ड कर देता है। लेकिन समय से बड़ा कोई गुरु नहीं होता। स्वयं गलती करके सीखने के लिये ये जीवन कम है इसलिए जो दूसरों की गलती से सबक ले ले उसे वाकई बुद्धिमान समझा जाना चाहिये। 

एक बार उसकी गलती से मिस्टेक हो गयी। कोई मैसेज आया। पढ़ने से पहले अँगूठे ने अपना काम कर दिया। बाद में जब लोगों के सद्भावना सन्देश आने लगे तो उसने ठीक से पढ़ा तब मिस्टेक का पता चला। जो ज्ञान शेयर किया था वो ज्ञान उस ग्रुप वालों को नहीं चाहिए था। फिर क्या था साहब पूरा का पूरा ग्रुप तीन दिन तक उसके उस ज्ञान पर अपना अज्ञान बघारता रहा। वो तो भला हो विश्वकर्मा जी का जो फोन से निकल कर आदमी सामने खड़ा हो जाए ऐसा आइडिया अभी नहीं दिया है। नहीं तो मॉब लिंचिंग के शिकार में एक नाम और शुमार हो जाता। फिर उसकी धर्म-जाति-बिरादरी देख कर कुछ लोग अवार्ड वापस कर रहे होते और कुछ भारत माता पर गर्व।

- वाणभट्ट 

शुक्रवार, 7 सितंबर 2018

बिरादर

बिरादर 

चीफ साहब ने अपने रिटायरमेंट की फेयरवेल पार्टी थ्री-स्टार होटल में रखी थी। वो कभी साहब का ख़ास हुआ करता था, सो दूसरे शहर में रहने के बावजूद उसको आमन्त्रण मिला। चूँकि आख़िरी मौका था। इसके बाद कुछ श्रद्धा सुमन अर्पित करने का सौभाग्य न मिले, इसलिये आधे दिन की छुट्टी लेकर वो फ़ंक्शन में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराने पहुँच गया। 

टैक्सी कर के पहुँचने पर भी उसे कुछ देर हो गयी। जब वो पहुँचा, पार्टी अपने शबाब पर थी। हॉल में घुसते हुये उसके पेट में एक अजीब सी गुड़-गुड़ होने लगी। उसे लगा सबकी निगाहें उसी पर टिकी हैं और हर शख़्स उसे घूरता सा लगा। कुछ लोग उसे देख कर बातें कर रहे थे। कुछ उसे कनखियों से देख कर मुस्कुराते और अट्ठहास करते से लगे। वो कॉन्शस हो गया। 

दरअसल उसने इस पार्टी के लिये विशेष रूप से सूट सिलवाया था। जल्दबाज़ी में टेलर को सिर्फ एक बार ट्रायल दे पाया। ऑफिस से आधे दिन की छुट्टी लेकर जैसे-तैसे टेलर के यहाँ से सूट कलेक्ट करते हुये जब तक घर पहुंचा, तब तक टैक्सी वाला आ चुका था। दस मिनट में तैयार हो कर वो टैक्सी में बैठ गया था। घर से चलते-चलते उसने आदमक़द आईने में अपना निरीक्षण किया। एक झल्लाहट सी हुयी उसे टेलर के ऊपर। इतना कहने के बाद भी दायें कन्धे के पास एक झोल आ ही गया। जब वो पार्टी में पहुँचा तो उसे लगा पार्टी में मौज़ूद हर व्यक्ति का ध्यान नये सूट के उस झोल पर है और हर कोई उस पर टीका-टिप्पणी कर के आनन्द ले रहा है। उसका मूड स्पॉइल हो गया। ये लोग भी अपने काम से काम नहीं रखते बस दूसरे के फटे में टांग अड़ाते रहते हैं। एक तो दर्ज़ी ने इतना मँहगा कपड़ा ख़राब कर दिया और इन्हें मज़ाक का मौका मिल गया।

जब वो बीटेक करने प्रौद्योगिकी कॉलेज में प्रवेश लेने गया था तब भी उसे ऐसा लगता था कि सारे लोग उसके प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं। वो उसको पिछड़ा होने के कारण कुछ हेय दृष्टि से देखते हैं। प्रोफ़ेसर और छात्र सब उसके ख़िलाफ़ हैं और जानबूझ कर उसे नीचा दिखाने की कोशिश में लगे रहते हैं। उसको सामाजिक असमानता का पाठ घुट्टी में पिलाया गया था। तथाकथित सम्भ्रान्त बने बैठे लोगों ने उनके पुरखों पर कितने अत्याचार किये। उनको गाँव के बाहर रहना पड़ता था। लोग उनकी परछाईं से भी दूर भागते थे। कोई उनके हाथ का छुआ न छूता था न खाता था। उन्हें अछूत होने का दंश झेलना पड़ता सो अलग से। ठाकुर-बाम्हन-बनिया सब सक्षम लोग थे जो इनको आगे बढ़ते नहीं देख सकते थे। शिक्षा के अधिकार तक से इन्हें वंचित कर रखा था।

यद्यपि की जीवन ने उस जीवन को न कभी देखा था न भोगा था। लेकिन रोज सुबह शीशे में अपना अक़्स देखते हुये उसकी सारी स्मृतियाँ चलचित्र की तरह जागृत हो जाती। तथाकथित अगड़ों के प्रति उसका मन तिरस्कार से भर जाता था। पिता जी भी उसे याद दिलाने का कोई मौका न छोड़ते कि उनके साथ बहुत अन्याय हुये थे। 

पिता जी को बचपन से पढ़ने-लिखने में होशियार थे। उनकी प्रतिभा को देख कर पण्डित हेडमास्टर ने उन्हें प्रोत्साहित किया। पाँचवीं की छात्रवृत्ति के आधार पर उनका दाखिला शहर के सरकारी स्कूल में करवाने में हर संभव मदद की। अपने अथक परिश्रम और प्रयासों के द्वारा पिता जी इनकम टैक्स डिपार्टमेंट में समाज में व्याप्त तमाम अंतर्विरोधों के बावज़ूद बड़े अधिकारी के पद तक पहुँचे। लेकिन अतीत के नाम पर उनके पास केवल समाज में व्याप्त कुरीतियाँ और पुरखों की कानबीती के दुःस्वप्न ही बचे थे। जिसमें हेडमास्टर साहब का योगदान शामिल नहीं था। 

वो अपने सभी बच्चों को पढ़ने के लिये प्रेरित करते और अपने बीते हुये दिन याद दिलाते रहते। ये बात अलग है कि अधिकारी बनने के बाद से उनका गाँव से संपर्क लगभग खत्म था। सरकारी स्कूल में दाखिले के साथ ही गाँव का मोह कम होता चला गया। वजीफ़े से ग्रेजुएशन और पोस्ट-ग्रेजुएशन की पढाई ने घर पर निर्भरता को ख़त्म कर दिया था। पिता जी ने जिस दिन छोटे भाइयों को अपने साथ रख कर पढ़ाने के लिये कहा तो साल में दो-चार चक्कर जो घर के लग जाते थे, वो भी कम हो गये। नौकरी लग जाने के बाद अपनी ही बिरादरी के शहराती परिवार ने छेक लिया। और पढ़ी-लिखी लड़की के बीवी बन जाने के बाद तो गाँव-घर जाना बन्द सा हो गया। एक-एक कर के वो हर उस छाया से दूर होने में लग गये जो उनको उनके पिछड़ेपन की याद दिलाती। अपने ही गाँव-घर-परिवार के लोग उन्हें पिछड़े और जाहिल नज़र आते। अतीत का सब कुछ वो भूल चुके थे सिवाय इसके कि उनके पुरखे किस अन्याय और अत्याचार से गुजरे थे। अपने बच्चों को वो इन्हीं यादों के सहारे पढ़ाई के लिए प्रेरित करते। 

उन्होंने सभी बच्चों को बारहवीं तक विज्ञान विषय से पढ़ने का अवसर दिया। टारगेट था किसी तरह बारहवीं पास करना। अपनी-अपनी योग्यता अनुसार कोई इंजिनियर बन गया कोई डॉक्टर। चूँकि उनकी तरह किसी ने बीए नहीं किया नहीं तो प्रशासनिक सेवा में ज़रूर सेलेक्ट हो जाता। जीवन ने एनआईटी से सिविल में बीटेक किया। उस समय सिविल सिर्फ़ एंट्रेंस के टॉप उम्मीदवारों को ही मिल पाती थी। निर्माण विभाग में उसकी नौकरी की शुरुआत आज रिटायर हो रहे चीफ़ साहब के अन्तर्गत ही हुयी। अपनी ही बिरादरी के होने के कारण उन्होंने उसको एक पुत्र का सा स्नेह दिया। उनकी छत्रछाया में उसने अभियांत्रिकी के वो गुर सीखे जो एनआईटी के गुरुजन नहीं सीखा पाए थे। आज उसके पास वो सब कुछ था जो एक सुविधजनक जीवन के लिये आवश्यक समझा जाता है। उसके जीवन में ऐसा कुछ नहीं था जिसके लिये वो किसी और को दोष दे सके। लेकिन पिता जी के द्वारा बचपन से सुनाये गये संस्मरण उसके जेहन में ऐसे अंकित थे जैसे उसने भी वही नारकीय जीवन जिया हो। गाहे-बगाहे बिना उसकी इच्छा और अनुमति के पिता प्रदत्त संस्कार जागृत हो जाते थे। विशेष रूप से किसी आयोजन या समारोह में। 

उसके पेट की गुड़-गुड़ बढ़ती जा रही थी। मन हो रहा था समारोह छोड़ कर निकल जाने का। ख़ामख़्वाह वो क्यों हास्यास्पद बना सबके सामने घूम रहा है। सबकी नज़रें उसके सूट के दायें कन्धे के झोल पर टिकी हुयी थीं। इतने में चीफ साहब की नज़र जीवन पर पड़ गयी। उन्होंने दूर से ही उसे आवाज़ दे कर बुलाया और बड़ी ही आत्मीयता से सीने में भींच लिया। जैसे कोई छोटा भाई बहुत दिनों बाद मिला हो। मन ही मन जीवन ने सोचा - चीफ साहब कितने भले इन्सान हैं उनका ध्यान सूट के झोल पर नहीं गया। उसे शायद ये नहीं पता कि तेज रोशनी में  लिपे-पुते चेहरे अपना-अपना झोल सीने में दफ़न किये हँसते-मुस्कुराते-खिलखिलाते हैं। उसी की तरह सब अपने-अपने झोल में उलझे हैं, दूसरे के झोल से किसी को कोई सरोकार नहीं है। सभी का अतीत गर्व करने लायक हो ऐसा तो हो नहीं सकता।   

कीमती गिफ्ट मिसेज़ चीफ़ के हाथों सौंप कर उसने पहली बार हॉल को नज़र भर देखा कि शायद कोई अपना बिरादर मिल जाये। 

- वाणभट्ट 
     

शनिवार, 1 सितंबर 2018

या देवी सर्व भूतेषु

या देवी सर्व भूतेषु

सुबह-सुबह अदरक की कुटाई चल रही थी। टहलने के बाद किसी धार्मिक चैनल पर प्रवचन सुनते हुये अखबार से चिपक जाना प्रकाश की आदत बन चुकी थी। लोग अखबार ऐसे पढ़ते हैं जैसे किसी एग्जाम के लिये जीके की तैयारी कर रहे हों। पता नहीं कौन सा क्वेशचन कहाँ से आ जाये। लेकिन दस मिनट बाद कोई पूछ लें कि कोई खास खबर तो बतायेंगे फलां मोहल्ले में चोर भैंस हाँक ले गये...कैसा ज़माना आ गया है। 

कुछ अलग करने की गरज़ से प्रकाश एडिटोरियल पढ़ा करता था। समकालीन चिंतकों के विचार पढ़ना उसका शग़ल था। कब कहाँ मौका मिल जाये और वो उन विचारों को अपना बता कर बुद्धिजीवियों की कतार में शामिल हो जाये। विचारों का कहाँ कॉपीराइट होता है। ये बात अलग है कि संख्याबल पर चलने वाले इस देश में बुद्धिजीवियों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। पढ़ते-पढ़ते उसने जिज्ञासा को आवाज़ लगायी "देवी चाय नहीं आयी अभी तक, अखबार खत्म होने को आया। अरे हाँ आज का अखबार बिल्कुल छूना मत। पता नहीं क्या-क्या छाप देते हैं देवी।" वो जिज्ञासा को देवी ही बुलाता था। शायद स्वयं को देवता घोषित करने का ये सबसे आसान तरीका है क्योंकि यंत्र नार्य पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता वाला सीधा-सटीक सिद्धान्त है।

जिज्ञासा चाय की ट्रे हाथ में लिये हाज़िर हो गयी। "क्यों न पढ़ूँ आज का पेपर। ज़रूर कोई नारी मुक्ति की बात लिखी होगी। चाहे कोई कितना भी पढ़-लिख ले लेकिन नारी की स्वतंत्रता उसे रास नहीं आती। अब तो पढ़ना ही पड़ेगा। अखबार बढ़ाओ।" चाय का प्याला पकड़ते हुये प्रकाश ने अखबार का न पढ़ने वाला पन्ना आगे करके पत्नी को पकड़ा दिया। 

प्रकाश एक मल्टीनेशनल फर्म में सॉफ्टवेयर इंजीनियर था। जिज्ञासा विज्ञान में पीएचडी कर के एक फार्मा कम्पनी में कार्यरत थी। दोनों की केमिस्ट्री अच्छी थी। नोक-झोंक हर समय चलती रहती। ऐसे ही साल गुज़रते गये और जिम्मेदारियाँ बढ़ती गयीं। जिज्ञासा ऑफिस और घर का मैनेजमेंट बखूबी निभाती जबकि उम्र में प्रकाश से कुछ छोटी ही थी। लेकिन दो बच्चों के बाद भी प्रकाश पूरा बच्चा ही बना हुआ था। जब तक वो घर पर रहता उसकी ज़िन्दगी जिज्ञासा के इर्द-गिर्द ही घूमती। कपड़े निकल दो। टाई कहाँ है। क्या खिला रही हो। हर समय कहाँ बिज़ी रहती हो। कुछ देर साथ बैठ जाया करो। लेकिन डबल ड्यूटी करने वाली जिज्ञासा के पास इतना समय कहाँ था। सो निर्णय ये हुआ कि सुबह की चाय साथ पियेंगे। और ये नियम बदस्तूर चलता था।

आज के एडिटोरियल में किसी महिला एक्टिविस्ट ने एक बहुत ही सुन्दर लेख लिखा था। उसका अभिप्राय ये था कि आज महिलायें लगभग हर क्षेत्र में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर काम कर रही हैं। और अक्सर उनसे अच्छा भी। वो उच्च पदों को सुशोभित ही नहीं कर रही बल्कि उनमें निहित व्यावसायिक ज़िम्मेदारियाँ बखूबी निभा रही हैं। खास बात ये है कि घर वापसी पर भी घर के सारे काम उनका इंतज़ार कर रहे होते हैं। और वो इसे काम भी नहीं मानती। पति और बच्चों के साथ दोस्त-रिश्तेदारों को सम्हालना शायद सुपरवुमन के बस की ही बात है।

लेख ने एक प्रश्न खूबसूरती से उछाला था कि ये पुरुष ऑफिस में ऐसा क्या करते हैं कि घर आने के बाद सिर्फ टीवी देखने और मैगज़ीन पलटने लायक ही बचते हैं। देवता बनना शायद  कठिन नहीं है लेकिन देवता बने रहना थोड़ा मुश्किल ज़रूर है। जिज्ञासा ने लेख खत्म करते हुये अपने अंदाज में कहा "कब से हाथ बटाने का इरादा है मिस्टर प्रकाश।"

- वाणभट्ट

शनिवार, 25 अगस्त 2018

काली भेंड़

काली भेंड़ 

तीसरा लगते-लगते इन्सान के अन्दर का आदमी बाहर झाँकने लगता है। जैसे रंगे सियार का रंग छूटता है। सुपीरिऑरिटी और अंग्रेज़ी दोनों सर चढ़ कर बोलने लगती है। शर्मा जी का तीसरा पैग ख़त्म होने की कगार पर था। आँखें शून्य की ओर लगभग स्थिर हो रही थी। आवाज़ लड़खड़ा ज़रूर रही थी लेकिन थी रौबीली और दमदार। क्लोज़ सर्किट की पार्टी थी। लेकिन किसी दारु पार्टी का असली मज़ा वही लोग लेते हैं जो इरशाद-इरशाद और मुकर्रर-मुकर्रर करके दूसरों को चढ़ाये रहें। 

बोले " यू  नो , फ्रॉम द वेरी बिगनिंग आई वाज़ वेरी हार्ड वर्किंग। इन फ़र्स्ट  अटेम्प्ट आई क्वालिफाइड फॉर सिविल सर्विसेज़। माई इल्डर ब्रदर वाज़ ऑल्सो वेरी इंटेलिजेंट। ही जॉइन्ड फॉरेन सर्विसेज़। यंगर ब्रदर मैनेज्ड विथ स्टेट सर्विसेज। वी हैड वेरी लॉन्ग जर्नी। फ्रॉम स्माल हैमलेट टु बेस्ट सर्विसेज़। आल विथ आवर हार्ड वर्क एंड डेडिकेशन। वी आर नाव वेरी रेप्यूटेड एंड सक्सेसफुल फैमिली इन माई विलेज। फ़ादर वाज़ सिम्पल प्राइमरी स्कूल टीचर..."।

वर्मा को मालूम था अब कैसेट पूरा रिपीट हो कर ही रुकेगा। लेकिन वो ये भी जानता था कि कहानी कब और कैसे ख़त्म करनी है। तब तक इरशाद करने का फ़र्ज़ तो बनता ही था। पूरा २०-२५ मिनट के मोनोलॉग से सभी पूर्व परिचित थे।  

"... वी ऑल आर वेल सैटल्ड। डूइंग वेल इन ऑफिस एंड फैमिली फ्रंट्स।"

कार्यक्रम का पटाक्षेप करने के उद्देश्य से वर्मा ने ठाकुर को आँख दबाते हुये पूछ ही लिया "सर आप लोग तो चार भाई हैं?"  बस फिर क्या था सभा में एक सन्नाटा सा छा गया। पर मजबूरी थी। शर्मा को झाड़ से उतारने का ये आज़माया हुआ नुस्खा था। पलीता लगा कर वो चुप हो गया। चौथा पेग अन्दर जा चुका था। शर्मा कन्ट्रोल के बाहर होने को था। लेकिन वर्मा का प्रश्न सुन कर एक ठण्डी साँस लेते हुये हिंदी में बोला "एक और बनाओ यार। क्या बतायें वर्मा वही सबसे छोटा भाई इज़ ब्लैक शीप इन माई फैमिली...।" मोनोलॉग फिर शुरू हो गया। पर आवाज़ का वो वज़न ग़ायब था जो शुरुआत में था। पता नहीं लोग क्यों दूसरे की ख़ुशी से खुश नहीं हो पाते। वर्मा को कुछ आत्मग्लानि सी महसूस हुयी। लेकिन तीर चल चुका था।      

ब्लैक शीप यानी काली भेंड़ को बचपन से मालूम था कि पढ़ाई -लिखाई उसके बस की बात नहीं है। बड़े भैया लोग शहर में रह कर पढ़ रहे हैं। वो बताते रहते हैं बड़ी मेहनत है पढ़ने में। उनका खर्चा मास्टर जी छोटी सी तनख्वाह और थोड़ी सी खेती से बड़ी मुश्किल से हो पाता था। मास्टर जी को भी लगता कि सब लायक निकल गए तो बुढ़ापे में उनकी सेवा-टहल कौन करेगा। पिता जी जब अपने सेमी-पक्के मकान के वरांडे में पड़े सोफे पर पैर चढ़ा कर यार-दोस्तों संग बैठते तो जोश में बेझिझक एक लड़का नालायक होने की महत्ता पर बल देते। उन सबको चाय-पानी कराते हुये काली भेंड़ को लगता पिता जी सही ही तो कह रहे हैं। उसके अलावा कौन है उनका ख्याल रखने वाला। बड़े भैया लोग गाँव में उनकी ज़रूरत का पूरा ख्याल जो रखते थे। नया सोफा लिया तो पुराना यहाँ छोड़ गये। नयी कार ली तो पुरानी  बजाज की ताली मना करने के बाद भी थमा गये कि पिता जी को कहीं जाना हो तो दिक़्क़त न हो। फ्रिज़-टीवी सब तो  हो गया है। धीरे-धीरे कच्चा मकान पक्का हो रहा है। छत पड़ गयी है और फर्श भी बन जायेगा। भाई लोग जब भी कोई ज़रूरत हो, धन का अभाव नहीं होने देते थे। बच्चों को बड़े भाइयों के बच्चों के कपड़े और किताबें सब मिल जाते। खेती में जो लागत लगती, उसका खर्च देते रहते। शहर वालों को शुद्ध खान-पान कहाँ मिलता है इस गरज़ से काली भेंड़ उनकी गाड़ियों में ताजे फल-सब्ज़ी रख देता। नौकरी कहीं भी हो पर घर के पास रहने के लिहाज़ से लखनऊ में सबने अपने-अपने मकान बनवा लिए थे। अब गोंडा के कस्बे में रहना उनके लिए मुश्किल था। सुबह आते और शाम तक निकल जाते। जाते-जाते उनका दिल भर जाता कहते पिता जी का ख्याल रखना। इससे ज़्यादा सुख की कल्पना कभी काली भेंड़ ने नहीं की थी।  

"...वी आर रियली वरीड। व्हाट विल हैपन टु हिम व्हेन फ़ादर इज़ नॉट देयर।"  

सुधी पाठकों से निवेदन है कि काली भेंड़ को ये बात कोई बताना मत। 

- वाणभट्ट  


रविवार, 6 मई 2018

बेरोज़गारी

बेरोज़गारी 

2019 का चुनाव क्या आ रहा है, सारा का सारा विपक्ष विकास ओरिएंटेड हो गया। अब हर कोई पूछ रहा है विकास कहाँ है। कोई विकास को पागल बता रहा है कोई ग़ुमशुदा। सब ये याद दिलाने में लगे हैं की एक ज़माना था जब विकास की नदियाँ दिन दहाड़े बहा करतीं थीं। आलम ये है कि हर विपक्षी कोई चीख़ - चीख़ के गा रहा है " कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन"। और पक्ष कह रहा है "छोडो कल की बातें कल की बात पुरानी"।     

लेकिन कालचक्र का काम है आगे बढ़ना। हाँ यदि सत्ता विरोधियों के बस चले तो घड़ी को एंटीक्लॉकवाइज़ घुमा दें। क्योंकि आजकल उनका एन्टी शब्द से प्रेम उफान पर है। उनका काम है सरकार के हर काम के एंटी चलना या एंटी बोलना। चाहे सरकार सर के बल खड़ी हो जाये। चुनाव सर पर है इसलिये फूफा और जीजा टाइप के लोगों का विरोध चरम पर है। घर में तो कोई पूछ नहीं रहा है तो देश की चिंता ही कर ली जाये। अगर थोड़ा ढीले पड़े तो 2019 भी हाथ से गया समझो। और अगर दस साल मिल गये तो शायद सरकार का विकास देश को दिखने भी लगे। तब किस बात से देश की धर्म-सम्प्रदाय-जातियों में बँटी जनता को भड़काया पायेंगे। 

दरअसल विकास तो सिर्फ बहाना है चूँकि सोशल मीडिया पर जाति या धर्म के आधार पर बरगलाना अशिक्षित और पिछड़ेपन की निशानी है इसलिए विकास और बेरोज़गारी ही ऐसे मुद्दे हैं जो धर्मनिरपेक्ष टाइप लगते है। हालाँकि यहाँ भी एक संप्रदाय या कुछ जातियों के विकास/बेरोजगारी की ही प्रमुखता है। एक विपक्षी मित्र से रहा नहीं गया बोले किस टाइप के वर्मा हो अगर ये सरकार चल गयी तो मनुवादी फिर हावी हो जायेंगे। मैंने कहा की उसमें बुराई ही क्या है। मनुस्मृति कहती है - "जन्मना जायते शूद्र: कर्मणा द्विज उच्यते" अर्थात "जन्म से सब शूद्र होते हैं और कर्म से पण्डित बनते हैं"। और चिंता की क्या बात है। देश तो संविधान से चलता है न की मनुस्मृति से। हमारे घर के पूजाघरों में गीता-रामायण तो हैं लेकिन मनुस्मृति शायद ही किसी के घर मिले। फिर इस पुस्तक का इतना विरोध क्यों। बहुत सी किताबें हमने नहीं पढ़ीं हैं, बहुत सी बैन हैं। जिन्हें जो पढ़ना है पढ़े, जिन्हें जो मानना है माने, मेरा क्या। फिर उन्होंने दार्शनिक अंदाज़ में फ़रमाया - आप नहीं समझेंगे आपने उस प्रताड़ना को नहीं भुगता है जिन्हें उनके पुरखे युगों से भुगतते आये हैं। इसमें कोई शक नहीं शहर में रहने के कारण संभवतः समाज के इस विद्रूप रूप को हमें करीब से देखने का मौका न मिला हो। जाते-जाते साहब ने आखिरी तीर मारा - ये साम्प्रदायिक लोग हैं देश के टुकड़े-टुकड़े कर देंगे। शायद उन्हें याद नहीं कि एक समय ऐसा था जब लोग मंदिर-मंदिर और मठ-मठ नहीं घूमते थे। इमाम साहब के दरबार में उनके गुर्दे सहलाये जाते थे कि वो धर्म निरपेक्ष राजनितिक पार्टी के पक्ष में फ़तवा निकाल दें। आजकल वो बेचारे कहाँ झख मार रहे हैं इस बात में मीडिया चैनलों की दिलचस्पी होनी चाहिये।  

वैसे मुझे लगा इनकी बात में वाकई दम है। यदि कर्म से ही सब पण्डित बनते तो चलती का नाम गाडी सरीखे युग में पण्डितों की संख्या भी विलुप्तप्राय प्राणियों जैसी हो गयी होती। ये वाकई गलत है कि लोग जातियों से चिपक के रह गये। इसलिए जो जहाँ था वहीँ ठहर गया। पंडित बिना कर्म किये भी पंडित बना रहा और अन्य कर्म कर के भी पंडित न बन पाये। शिक्षा के प्रचार-प्रसार से इतना फर्क तो पड़ा है ज्ञान किसी वर्ग विशेष तक सिमित नहीं रह गया। इस युग में कोई भी ज्ञानार्जन कर सकता है। लेकिन ज्ञान पाने के लिये आदमी को जिज्ञासु होना चाहिये। लेकिन उस ज्ञान का क्या करेंगे जो दो जून की रोटी भी मुहैया न कर सके। इसलिये नौकरी का प्रावधान किया गया। अब नौकरी है तो  कुछ योग्यताएं भी होनी चाहिये इसलिये इम्तहान भी होने लगे प्राइमरी से लेकर उच्च शिक्षा तक। यहीं से कर्महीन व्यवस्था ने अपनी जड़ें फैलानी शुरू कर दीं। चूँकि नौकरी में न्यूनतम शिक्षा की दरकार होती है इसलिए ऐन-केन-प्रकारेण डिग्री हासिल करने की कवायद बढ़ गयी। पढ़-लिख कर पास होना हमेशा कठिन रहा है। इसलिये पाथ ऑफ़ लीस्ट रेसिस्टेंस के अनुगामियों ने सीधा-सुन्दर-सस्ता तरीका अपनाया। एग्जाम फिक्स करने का। "जहाँ सच न चले वहाँ झूठ सही जहाँ हक़ न मिले वहाँ लूट सही" साहिर साहब बहुत पहले ही फ़रमा गये हैं। हमारी एक खूबी तो है कर्म करके पंडित बनने की बात हमें भले न समझ आती हो लेकिन झूठ और लूट की बातें सजह स्वीकार्य हो जातीं हैं। एक वैज्ञानिक गोष्टी के सबसे आकर्षक प्रोग्राम, लंच, की लम्बी लाइन में खाली प्लेट-चम्मच लिए खड़ा था जब एक पीएचडी याफ़्ता सीनियर मोहतरमा अपनी टीन एज बेटी के साथ बीच में घुस गयीं। उनके किसी मित्र ने टोका मैडम प्लीज़ फॉलो द रूल्स। मोहतरमा ने बिना समय गँवाये अपनी वाक्पटुता का परिचय दे दिया "रूल्स आर फॉर फूल्स"। यकीन मानिये उस दिन से कुछ दिनों के लिये शिक्षा व्यवस्था से विश्वास उठ सा गया था। लेकिन जब दिनोंदिन कठिन होते जा रहे कम्पटीशन्स के सफल अभ्यर्थियों के विश्वास से दमकते चेहरे देखता हूँ तो पुनः विश्वास हो जाता है ज्ञान की खोज अभी भी जारी है। जातियों से हट के पाण्डित्य का आविर्भाव सतत होता रहता है और होता रहेगा।  

अब बात करते हैं बेरोजगारी की। ये एक वृहद् समस्या बन चुकी है। उसके पीछे जॉब्स की घटती सँख्या शायद उतनी महत्वपूर्ण नहीं है जितनी सरकारी नौकरी की उम्मीदें। सर्वशिक्षा अभियान के तहत शिक्षा तो दी जा सकती है ज्ञान नहीं। ज्ञान को तो अर्जित करना पड़ता है। लेकिन एग्जाम पास करने की हड़बड़ी में शिक्षा और ज्ञान दोनों से हमारी पीढ़ियाँ वंचित रह गयीं। अपने हाईस्कूल और इण्टर के दौरान (80 के दशक में) भी लोग गेस पेपर और पेपर आउट करने की फ़िराक़ में रहते थे। एग्जामिनेशन सेन्टर के बाहर अभिभावकों की भीड़ बता देती थी की बोर्ड परीक्षाएं शुरू हो गयीं हैं। कुछ लोग रिमोट स्कूलों से फॉर्म भरते थे। ठेका प्रथा उन्हें पास करने की गारंटी लेती थी। गुनी लोग बोर्ड ऑफिस से कॉपियां ट्रैक करके एग्जामिनर तक पहुँच जाते थे। समय के साथ कल का घाव आज नासूर बन चुका है। अब जब कोई नक़ल रोकने की बात करता है तो उसे छात्र विरोधी करार दे दिया जाता है। डिग्री कॉलेज में लड़कियों ने फ़्लाइंग स्क्वॉड में गए प्रोफेसरों को पीट दिया। हर जगह नक़ल हो रही है तो हमें ही रोकने क्यों आ गये। एक कॉलेज में लड़के नक़ल कराने के लिए आंदोलित हो गये। बोले अभी तक यहाँ बोल-बोल के नक़ल करायी जाती थी। पास कराने के लिए पैसा ले लिया और अब नक़ल रोक रहे हैं। ये हिम्मत और जज़्बा कबील-ए -गौर है। ये मामला यहाँ तक बढ़ चुका है की मुन्ना भाई की अवधारणा हक़ीक़त बन गयी है। अब जब किसी प्रकार डिग्री मिल गयी है तो हम इतने शालीन भी नहीं हैं कि स्वीकार कर सकें की डिग्री तो मिल गयी लेकिन ज्ञान का गागर खाली ही रहा।

बेतहाशा बढ़ रही जनसंख्या के देश में शिक्षा एक उद्योग बन गया। स्कुल, कॉलेज और विश्वविद्यालयों की बाढ़ सी आ गयी। उतने ही कोचिंग संस्थान खुल गए। स्कूलों में पढाई की फ़ीस और कोचिंग में ज्ञान बँटने लगा। आज आईआईटी से ले कर आईएएस तक हर चीज़ की कोचिंग है। प्राइमरी से ट्यूशंस की बात करना भी बेमानी लगता है। जो पार्टियाँ सत्ता में रहते हुये धड़ल्ले से नक़ल की पक्षधर थीं आज बेरोजगारी के मुद्दे को लेकर उतनी ही मुखर हैं। और सबके मूल में कहीं रोज़गार की बात नहीं है अलबत्ता सरकारी नौकरी की बात ज़रूर है। कम्पटीशन इतना टफ होता जा रहा है कि डिग्री की कलई खुलनी तय है। ऐसा नहीं है कि सब बच्चे नक़ल कर रहे हैं लेकिन सुविधा विहीन स्कूलों और कॉलेजों में भी छात्र एडमिशन ले रहे हैं और डिग्रियां हासिल कर रहे हैं। पार्टियाँ भी चुनावी माहौल में नौजवानों को नौकरी का प्रलोभन देने में पीछे नहीं रहतीं। एक से बढ़ कर एक वादे किये जाते हैं लेकिन बाद में इन्हें पूरा करना कठिन हो जाता है। 

शिक्षा का मूल उद्देश्य ही मनुष्य को प्रवृत्तियों से मुक्त करना है। पर क्या हम शिक्षा में उन मूल्यों को जोड़ पाए जो उन्हें अच्छा नागरिक बनाने के लिये आवश्यक हैं। शिक्षित व्यक्ति स्वाभाविक रूप से रूल और लॉ को मानने वाला होना चाहिये। ये वाँछित नहीं आवश्यक योग्यता है। बेरोजगारी के विरुद्ध आंदोलन कर रहे छात्रों का उग्र हो जाना, तोड़-फोड़ करना, मार-पीट करना शिक्षित होने के मानदण्डों को पूरा नहीं करता। बड़ी-बड़ी बातें तो कोई भी कर सकता है। आम जनता की छोटी-छोटी बातें देश की दिशा बतातीं हैं। रूल्स को सहज रूप से तोड़ने की प्रवृत्ति हमें अपने पूर्वजों से भी पीछे ढकेल देतीं हैं। बदतमीज़ी स्मार्टनेस का पर्याय बन चुकी है। केजी के बच्चे से तो हम गुड़ मॉर्निंग-थैंक्यू-सॉरी की उम्मीद करते हैं। उम्मीद करते हैं की वो कूड़ा डस्टबिन में डालेगा। पर डिग्रीधारक गुटखा-पान-ज़र्दा चबा कर चुल्लू भर फेचकुर कही भी उगल सकता है। चलती कार के दरवाज़ा खोल कर गुटखे का झाग इस तरह फेंकना कि अपनी कार न ख़राब हो, स्वाध्याय द्वारा कौशल विकास का उदाहरण है। एक मोटरसाइकिल पर तीन सवारी वो भी बिना हेलमेट के, गरदन झुका के मोबाईल पर बात करना और वाहन चलाना, चार लेन सड़क पर उल्टा चलना, कूड़े को निस्पृह भाव से बाहर फेंक देना आदि-इत्यादि कुछ बानगियाँ हैं हमारे शिक्षित समाज की। इनमें बेरोजगार और नौकरीशुदा सब शामिल हैं। तब लगता है सर्वशिक्षा अभियान शायद साक्षरता मिशन से ऊपर नहीं उठ पाया। शिक्षित व्यक्ति बस-ट्रक में आग लगायेगा। रेल रोकेगा पटरी उखड़ेगा। तो समय है रुक कर सोचने का। कुछ कमी हमारी उपब्रिंगिंग में भी हो सकती है। लेकिन शायद शिक्षा का उद्देश्य डिग्री बाँटने तक ही सीमित हो कर रह गया है। 

जिस देश में सब लोग राय देना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हों वहाँ एक राय चिटकाना मेरा भी फ़र्ज़ बनता है। भारत की इस पावन धरा पर जिसका भी जन्म हो उसे एक गुज़ारा-भत्ता देने का सरकार प्रावधान करे। सबको प्राइमरी-सेकेंडरी तक फ्री शिक्षा दे। जिसमें नागरिक शास्त्र अच्छी तरह से पढ़ाया जाए ताकि देश के प्रति कर्तव्य और अपने अधिकारों को सब समझ सकें। उसी योग्यता को जॉब्स का एंट्री लेवल रखा जाये। उच्च पदों पर जहाँ उच्च शिक्षा की दरकार हो उचित लोगों का चुनाव किया जाये। उच्च डिग्री लेकर कम क्षमता वाले पदों पर आवेदन करना नवजवानों के मनोबल पर विपरीत प्रभाव डालता है। विद्वान लोगों की संख्या सदैव आम लोगों से कम रहेगी। सिर्फ संख्याबल के दम पर ये सिद्ध करने का प्रयास किया जा रहा है कि सब इंसान बराबर हैं। इंसानियत के लिहाज़ ये यक़ीनन सब बराबर हैं लेकिन पद-प्रतिष्ठा-पैसे की दृष्टि से हमें अपना परिमार्जन करना ही होगा। और इसका कोई विकल्प भी नहीं है।  

- वाणभट्ट 

घोषणापत्र

हर तरफ़ चुनाव का माहौल है. छोटी-छोटी मोहल्ला स्तर की पार्टियां आज अपना-अपना घोषणापत्र ऐसे बांच रहे हैं मानो केन्द्र में सरकार इनकी ही बनने व...